अर्चना
पाठ्या
किसी भी विचारधारा एवं व्यक्तित्व का
साहित्य पर प्रभाव परोक्ष और अपरोक्ष रूप में पड़ता है और उसको निश्चित रूप में
संकेतित करना मुश्किल कार्य होता है। महात्मा गाँधी इतने व्यक्तित्ववान नेता थे कि
ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि गौतम बुद्ध के बाद भारत में गाँधीजी ही एक
ऐसे व्यक्ति थे, जिनका प्रभाव भारतीय जीवन-दृष्टि, विचारधारा, संवेदना, जीवन-रीतियाँ, समाज-मानस, व्यक्ति
इत्यादि पर पड़ा और यह भी कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज फिर से गाँधी
जीवन-दर्शन महत्त्वपूर्ण होने लगा है।
सन् 1915 में गाँधीजी भारत लौटे और
उन्होंने राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर तुjaत अपना प्रभाव डालना प्रारंभ किया था।
भारतीय साहित्य भी इससे अलग नहीं रहा। हिंदी कविता पर और हिंदी उपन्यास पर गाँधीजी
का प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव अनेक तरह से पड़ा। गाँधीजी के विचारों एवं जीवन-दृष्टि
के आधार पर औपन्यासिक चरित्रों का प्रतिरूप बनाया गया, गाँधीजी
के जीवन की घटनाओं का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया गया, गाँधीजी
द्वारा प्रवर्तित राष्ट्रीय आन्दोलनों का चित्ररूप दर्शन कराया गया, गाँधीजी
के कुछ सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिए कथाओं की संरचना की गयी। (उदाहरणस्वरुप
हृदय-परिवर्तन,
अहिंसक
प्रतिरोध, सत्य
का स्वरूप-विवेचन, ट्रस्टीशिप की परिकल्पना, औद्योगिक
विकास के दौरान बढ़ने वाली अनैतिकता, दलित, पीड़ित, पतित, शोषित
समाज के प्रति सहानुभूति आदि) संदेह नहीं कि गाँधीजी ने अपने व्यक्तित्व और
कृतित्व से, विचारों
और शील से साहित्यकारों को पर्याप्त fo"k;
प्रदान किया। यहाँ
हिंदी उपन्यास पर गाँधीवादी प्रभाव के सकारात्मक पक्ष को देखना अभीष्ट है।
प्रेमचन्द के कई उपन्यासों में गाँधीवाद
की स्पष्ट झलक मिलती है। विशेषकर 'निर्मला', 'प्रेमाश्रम', 'ग़बन', 'कर्मभूमि' और
'रंगभूमि' में।
'गोदान' में
भी गाँधीवादी चेतना मुखर है, यद्यपि बच्चन सिंह ने कहा है कि 'गोदान' में
प्रेमचंद गाँधीवाद से मुक्त हैं। 'निर्मला' के
एक पात्र को यों प्रस्तुत किया गया है - खद्दर के बड़े प्रेमी हैं, पीठ पर खादी लाद कर
देहातों में बेचने जाया करते हैं और व्याख्यान देने में भी चतुर हैं।' 'प्रेमाश्रम' में
एक पात्र से कहलवाया है- इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा।
यूरोपवाले दूसरे देशों से कच्चा माल ले जाते हैं, जहाज़ का किराया दे
देते हैं,
उन्हें मज़दूरों को कड़ी मज़दूरी देनी पड़ती है, उस
पर हिस्सेदारों को नफ़ा भी ख़ूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से
मुक्त रहेगा। प्रेमचंद के उपन्यासों पर जो राष्ट्रीय
वातावरण का प्रभाव परिलक्षित होता है, उसका मूल कारण तत्कालीन राजनैतिक और
आर्थिक परिस्थितियाँ कही जा सकती हैं। प्रेमचंद के प्रथम कहानी-संग्रह 'सोज़े
वतन' (सन
1908) की उग्रता देखकर सरकार ने उसे ज़ब्त कर लिया था। 'प्रेमाश्रम' में
गाँधी की भाँति प्रेमचंद ने भी विश्वास व्यक्त किया है कि किसानों और ज़मींदारों
के सम्बन्ध प्रेम और सहयोगपूर्ण हो सकते हैं। प्रेमशंकर और मायाशंकर जैसे
जमींदार-वर्ग के व्यक्ति किसानों की सेवा में अपने जीवन को पूर्णतया समर्पित कर
सकते हैं।1 प्रेमशंकर
उसी का भूमि पर अधिकार मानता है, जो उसे जोतते हैं। मायाशंकर भी 'सबै
भूमि गोपाल की'
ही
स्वीकार करता है तथा किसान और सरकार के बीच किसी अन्य वर्ग या श्रेणी की सत्ता एवं
अधिकार को वर्तमान समाज का कलंक समझता है।2 प्रेमचंद 'प्रेमाश्रम' में
लखनपुर गाँव में आदर्श राज्य की स्थापना करते हैं; जहाँ
सेवा, प्रेम, सत्य, अहिंसा, त्याग, शारीरिक
श्रम इत्यादि की प्रतिष्ठा दिखायी गयी है।
'रंगभूमि' के
गाँधीवादी नायक सूर का व्यक्तित्व अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सूर का
साधन-शुद्धि का आग्रह, मशीनीकरण का विरोध, पूँजीवादी संस्कृति की उपेक्षा, प्राचीनकाल
से चली आयी सामन्तवादी संस्कृति के प्रति आकर्षण आदि विचार गाँधीवाद का प्रभाव
सूचित करते हैं। सरकार और जन-सेवक के विरोध में सूर की लड़ाई भी अहिंसक ढंग से
चलती है। 'काया
कल्प' में
मनुष्य ऐश्वर्य और विलास के पीछे पड़कर किस प्रकार पतित हो जाता है, इसकी
चर्चा की गयी है। 'ग़बन' में भी विलासप्रियता और शारीरिक सुख के
पीछे पड़ने के भीषण पर्यवसान की ओर संकेत कर सेवा और त्यागमय जीवन की महिमा गायी
गयी है।
'कर्मभूमि' में
गाँधी के व्यावहारिक कार्यक्रमों का गाँवों में प्रचार दिखाया गया है। सूत-कताई, बुनाई, हरिजनोद्धार, शराबबंदी, मुर्दा
जानवरों का मांस-भक्षण न करना, विभिन्न जातियों में रोटी-व्यवहार, मंदिर-प्रवेश
का आन्दोलन इत्यादि को पढ़ते समय गाँधी-युग का वातावरण साकार होता जान पड़ता है।
सरकारी नौकर सलीम एवं घोर धन-लोभी सेठ अमरकान्त का हृदय-परिवर्तन और उनका
सम्पत्ति-दान तथा सुखदा का विलास-मार्ग को त्याग कर सेवा-मार्ग को ग्रहण करना, बूढ़ी
पठानिन, नैना
इत्यादि नारियों का राष्ट्र-सेवा के लिए तत्पर होना गाँधी-युगीन प्रभाव को व्यक्त
करता है। मालूम
होता है कि आगे चलकर यथार्थ के गहरे निरीक्षण ने इस जनवादी कलाकार की गाँधीवाद के
प्रति आस्था को कुछ विचलित कर दिया और 'गोदान' में
आकर वे समाजवाद की ओर क़दम बढ़ाते दिखायी पड़ते हैं। लेकिन गाँधीवादी तत्त्व
प्रेमचंद के व्यक्तित्व से विलुप्त नहीं हुआ। ब्राह्मण मातादीन सिलिया चमारिन को
अपनाता है, उसका
हृदय-परिवर्तन होता है। मालती और मेहता के संबंधों में निर्विषय प्रेम का उद्भव
होता है और दोनों जन-सेवा को समर्पित होते हैं।
गाँधीवाद से प्रभावित दूसरे लेखक हैं 'जैनेन्द्र'।
'परख' में
गाँधीवाद का प्रभाव 'सत्यधन' पर दिखाया गया है, परन्तु
ढुलमुल वकील सत्यधन ने इस प्रभाव को बाह्य रूप में ग्रहण किया था। अतएव नारी, धन
तथा प्रतिष्ठा के मोह को वह त्याग नहीं सका। इसके विपरीत बिहारी का व्यक्तित्व
गाँधीवादी आदर्श से अनुप्राणित जान पड़ता है। जैनेन्द्र सम्भवत% दिखाना चाहते थे कि गाँधीजी का आदर्श
सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं है, बल्कि वह बिहारी जैसे व्यक्ति के लिए ही
उपयुक्त है, जिसके
व्यक्तित्व का लंगर गहराई में पड़ा हुआ है। नन्ददुलारे वाजपेयी का कथन है कि 'सुनीता' तथा बाद की रचनाओं
में जैनेन्द्र ने गाँधीवाद और मनोविज्ञान का समन्वय करने का असफल प्रयास किया है।3
सुनीता', 'सुखदा', 'व्यतीत' और
'विवर्त' में
जैनेन्द्र नारी के पर-पुरुष से प्रेम करने की मनोवैज्ञानिक समस्या का समाधान
गाँधीवादी दृष्टिकोण से- हृदय-परिवर्तन के सिद्धांत से] ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं।
वाजपेयीजी इस सम्बन्ध में लिखते हैं, ये पात्र अपनी पत्नियों को प्रत्येक दशा
में पूरी छूट देते हैं और इस प्रणाली के द्वारा इनके हृदय-परिवर्तन की प्रतीक्षा
करते हैं। गाँधीजी ने हृदय-परिवर्तन का आदर्श राजनीतिक स्तर पर प्रतिष्ठित किया
था। पारिवारिक व्यवहारों में गाँधीजी हृदय-परिवर्तन जैसी वस्तु को स्वीकार करते
थे। कदाचित् जैनेन्द्र ने यह तथ्य गाँधी-दर्शन से ही ग्रहण किया है।4 इसी प्रकार 'त्याग-पत्र' की
मृणाल भी समाज द्वारा दिया गया कष्ट मौन भाव से सहन करती है। नगेन्द्र उसके बारे
में लिखते हैं,
कष्ट
के कारणों से घृणा न करते हुए, कष्ट की अनिवार्यता से त्रास न खाकर, उसमें आनंद की भावना
करना अहिंसा है और अहिंसा यह सिखाती है कि अमुक्त वासना का वितरण करना ही उसकी
सफलता है।5 जैनेन्द्र के प्रमुख पात्र समस्याओं के
समाधान के लिए बुद्धि पर निर्भर रहने की अपेक्षा हृदय और श्रद्धा में विश्वास करते
जान पड़ते हैं। गाँधीजी बुद्धि से अधिक श्रद्धा में आस्था रखते थे।6
जैनेन्द्र
ने गाँधीवाद के प्रभाव को सीमित क्षेत्र में ही प्रस्तुत किया। जहाँ तक राष्ट्रीय
आन्दालनों और नारी की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का प्रश्न है, जैनेन्द्र
के उपन्यासों में उसका प्रभाव विचित्र रूप में दिखायी पड़ता है। 'सुनीता' में
हरिप्रसन्न और स्वयं सुनीता का देश-प्रेम तथा अन्य उपन्यासों में किया गया
राष्ट्रीय समस्याओं का क्षीण उल्लेख सीधा नहीं जान पड़ता। लगता है, जैनेन्द्र
का यह आंतरिक चित्रण है कि गाँधीवाद विचारों के धरातल पर अपनाया जाय तो
प्रसंग-विशेष में उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो सकती है। गाँधीवाद को अधिक आन्तरिकता
से अपने समूचे व्यक्तित्व के साथ आपन्न करना आवश्यक है। हो सकता है, स्वयं
जैनेन्द्र जी के मन में भी गाँधीवाद को लेकर कुछ शंकाएँ विद्यमान हों। इसके
विपरीत गाँधीवाद के प्रति पूर्णत%
तादात्म्य परिलक्षित होता है
आलोचकों ने सियारामशरण गुप्त को भी
गाँधी-लेखक माना है। जैनेन्द्र और सियारामशरण गुप्त के जीवनादर्श के सम्बन्ध में
नगेन्द्र सही लिखते हैं, ''दोनों व्यक्तियों का जीवनादर्श एक है- पूर्ण अहिंसा की स्थिति
प्राप्त कर लेना,
अर्थात्
अपने अहं को पूर्णत% Hkqला देना। इस साध्य के लिए सियारामशरण
गुप्त की साधना अधिक हार्दिक है, नैतिक दमन का अभ्यास उनको अधिक है और
उनका अहं सचमुच काफ़ी Hkwल चुका है। अहिंसा बहुत-कुछ उनके
व्यक्तित्व का अंग बन चुकी है।'7 देवराज
उपाध्याय भी सियारामशरण गुप्त के कथा-साहित्य पर अहिंसा का पूर्ण प्रभाव देखते हैं।8 सियारामशरण
गुप्त के उपन्यासों पर गाँधीवाद का बाह्य प्रभाव नहीं है, परन्तु
उनके व्यक्तित्व में गाँधीवाद के सिद्धांत-पक्ष का पूर्णत% पालन हुआ है। सियारामशरणजी सामाजिक
मान्यताओं के नीचे कुचले गये निरीह व्यक्ति के प्रति सहानुभूति दर्शाते हैं। 'गोद' में
दुर्भाग्य से प्रताड़ित निरीह किशोरी को कठोर दण्ड भुगतना पड़ा। शोभाराम की मानवता
भाभी के वात्सल्यपूर्ण आत्मीय-भाव का अवलम्बन पाकर जाग ही नहीं उठती, सक्रिय
भी हो जाती है। वह अपने भाई के ख़िलाफ़ विद्रोह का झण्डा उठाती है। परन्तु यह
विद्रोह दयाराम के हृदय-परिवर्तन के उपरान्त पारस्परिक प्रेम की प्रगाढ़ अनुभूति
में बदल जाता है। 'अंतिम आकांक्षा' का नायक एक निम्न जाति का स्वामी-भक्त
और सत्यनिष्ठ व्यक्ति है, जिसके हाथ से एक डाकू की हत्या हो गयी
है। लेखक रामलाल के विशाल हृदय का चित्रण करने में तल्लीन हो गया है। 'नारी' में
जमुना और अजीत के निष्कलुष स्नेह-भाव को चित्रित करने में लेखक सफल हुआ है। जमुना
अपने पुत्र से कहती है, ''सह ले इसे,सह
ले। कमज़ोर क्यों पड़ता है? जितना ही अधिक सह सकेगा, उतना
ही बड़ा होगा।...'' इस वाक्य में गाँधी के सन्देश की ध्वनि
स्पष्ट सुनायी पड़ती है। सियारामशरण गुप्त के पात्रों में सामाजिक अन्याय के प्रति
तीव्र विद्रोह-भाव नहीं है, आक्रोश का भाव भी नहीं दिखायी देता; परन्तु
इनकी पीड़ा दुर्बल की मोटी हाय है, जो लोहे को भी भस्म कर देती है।9
गाँधीजी
का मूल मंत्र है मानव-उपासना। सियारामशरण जी जीवन-पर्यन्त इसी मानव-उपासना में लगे
रहे, जिसकी
अभिव्यक्ति 'मौर्य-विजय', 'अनाथ', 'आर्द्रा', 'दूर्वादल', 'आत्मोत्सर्ग' और
'बापू' में
दिखायी देती है। सियारामशरण जी को सम्बोधित करते हुए 'बापू' की
भूमिका में श्री महादेव देसाई ने लिखा है, "आपकी
गगरी का पानी पीकर बड़ी प्रसन्नता हुई। आप ठीक कहते हैं कि बापू एक बड़ा तीर्थ
हैं। उस तीर्थ के विपुल सलिल से जिसकी जितनी शक्ति हो, उतना
ही ले सकता है।10 महात्मा गाँधी गीता द्वारा प्रतिपादित
इस सिद्धांत के समर्थक थे कि हमारा साध्य ही नहीं, साधन
भी निष्कलुष होना चाहिए। 'रश्मिरथी' का
कर्ण इसी सिद्धांत का साकार रूप है।
गाँधीजी
के विरोध में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित लेखकों ने काफ़ी लिखा। ब्रह्मचर्य, हृदय-परिवर्तन, काम-दमन
या संयम, आर्थिक
कृषि-केन्द्रित नीति, बड़े उद्योगों के प्रति गाँधीजी का दृष्टिकोण, अहिंसा
पर बल आदि मुद्दों पर करारे आघात किये गये। लेकिन वह सब इतिहास की वस्तु बन गया है, क्योंकि
गाँधीवाद का मखौल उड़ाना आसान है, उनकी मूलभूत दृष्टि, तत्त्व
और आचरणगत व्यवहार पर टिकाऊ विरोध करना कठिन है। गाँधीजी की विचार-धारा को एक
प्रकार से आध्यात्मिक मानववाद कहा जा सकता है, जिसके
मूल आधार हैं सत्य और अहिंसा। उनकी दृष्टि में सत्य के साक्षात्कार
से समबुद्धि प्राप्त होती है और समबुद्धि से सबके प्रति अहिंसा का भाव उत्पन्न
होता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि अहिंसा सत्य का ही दूसरा पहलू है।
उनके अनुसार अहिंसा सत्य का भाव-पक्ष है, इसका अर्थ केवल हिंसा का अर्थात्
द्वेष-बैर का अभाव नहीं, वरन् प्रेम का भाव है। गाँधीजी की इस
अहिंसा में द्वेष-बैर-त्याग, चराचर-प्रेम और पूर्ण निष्काम भाव की
सेवा का समन्वय है।11
आलोचनाओं
की आग में तपकर आज महात्मा गाँधी के सिद्धांत तथा उनकी नीतियाँ और प्रखर साबित हो
रही हैं। महात्मा गाँधी के विषय में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने कहा था कि
आनेवाली पीढ़ियाँ मुश्किल से यह विश्वास कर सकेंगी कि हमारे बीच हाड़-मांस का ऐसा
चलता-फिरता आदमी पैदा हुआ था। आनेवाली पीढ़ियों का यह विश्वास जीवित रखने का
उत्तरदायित्व हमारे देश के प्रबुद्ध कवियों और लेखकों का है, जो
अपनी रचनाओं के माध्यम से यह काम बख़ूबी कर सकते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण
गुप्त, रामनरेश
त्रिपाठी, सियाराम
शरण गुप्त, बालकृष्ण
शर्मा 'नवीन', सुभद्रा
कुमारी चौहान, सूर्यकान्त
त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन
पंत आदि की कविताओं में तथा प्रेमचन्द, जैनेन्द्र कुमार, विष्णु
प्रभाकर आदि के उपन्यासों, कहानियों और नाटकों में गाँधीवाद की
सर्वाधिक छाप मिलती है।'' महात्मा
गाँधी ने विश्व-बंधुत्व, लोक-मंगल की विचारधारा को अपनाकर साम्य भाव को
महत्त्व दिया। छायावादी रचनाओं में गाँधी जी के इस साम्य भाव और मानव-कल्याण की
भावनाओं को भरपूर स्थान मिला। यदि छायावाद को गाँधीयुग की देन मान लें तो कोई
अतिशयोक्ति नहीं होगी।'' डॉ. नगेन्द्र के अनुसार ''गाँधी
की अहिंसा उस युग की चेतना की प्रतीक थी, अतएव छायावाद में वैयक्तिक चेतना के आस्तिक
अधिमानसिक रूप का ही विकास हुआ। पन्त, महादेवी जैसे सुकुमार भावनाओं के कवियों ने तो
उसे आत्मसात कर लिया। प्रसाद और निराला जैसे उद्दाम कवियों ने भी उन मूल्यों को ही
स्वीकार किया।
महात्मा गांधी जी का कथन था कि 'समाज
के वंचित-मुंचित, दलित-शोषित, दरिद्रनारायण
की सेवा करो। फलस्वरूप
कई काव्य और उपन्यास अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर लिखे गए। सन बीस
से लेकर चालीस के बीच पचासों उपन्यास इस दिशा में अग्रसर हुए। मैथिलीशरण
गुप्त के 'किसान' और 'अछूत' खंडकाव्य, रवीन्द्रनाथ
की 'चांडालिका', शरतचंद्र
चटर्जी का 'पल्ली
समाज' इसी कोfट के हैं। गांधी जी ने सेवा, संयम
एवं अहिंसा का जो पाठ पढाया था, उसी तथ्य पर आधारित व्यंग्य नाटक 'बकरी' सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना का है। नरेंद्र कोहली का 'शंबूक की हत्या' भी इसी कोटि की है। हिन्दी साहित्यकारों के
साथ-साथ, दक्षिण
भारत के साहित्यकारों में भी गांधी जी के भाषण का अद्वितीय प्रभाव रहा। गांधी
जी का कहना था, 'गांवों
की ओर चलो। विकेंद्रीकरण के इस नारे का ही प्रभाव था कि
हिन्दी में 'देहाती
दुनिया', 'गोदान' और 'मैला
आंचल' तक, ग्राम
और ग्रामीण जीवन, कहानियों
और उपन्यासों का विषय बना। महात्मा गांधी जी के सिध्दांतों का प्रभाव केवल
राष्ट्रीय आंदोलन पर ही नहीं, विश्व शांति के लिए अहिंसा का प्रेरणा देने में
भी था।
इस
प्रकार कह सकते हैं कि गाँधी-युग के समग्र प्रभाव को प्रेमचंद ने अभिव्यक्ति दी, जैनेन्द्र
ने पारिवारिक क्षेत्र के अन्तर्गत विशिष्ट समस्या का विश्लेषण करने में गाँधीवाद
के अहिंसा, प्रेम
और हृदय-परिवर्तन के सिद्धांतों का उपयोग किया और सियारामशरण गुप्त ने गाँधी के
सिद्धांतों को अपने व्यक्तित्व में पूर्णत% आत्मसात् कर राजनैतिक, सामाजिक
तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों से अलग (यथा संभव) रहकर गाँधी के सैद्धांतिक पक्ष को
कतिपय पात्रों के माध्यम से मूर्त करने का प्रयत्न किया। यह
सत्य आज के साहित्य में व्यक्त हो रहा है- गाँधीवाद का नाम नहीं लिया जाता है, परन्तु
है वह कहीं गाँधी की आत्मा की पुकार। गाँधी साहित्य के द्वार खटखटा रहा है, हम
सजग नहीं होंगे तो देवता कूच कर सकता है। सवाल हमारी ही सार्थक अभिव्यक्ति का है। गाँधी
जी ने दूसरों के लिए जीवन जीने की सीख भी दी थी। विश्वास है कि यदि लोग इस पर चल
सकें तो बहुत-सी समस्याएँ अपने आप सुलझ जायेंगी। इससे मनुष्य बेहतर नागरिक बनेंगे।
संदर्भ संकेत :
1. 'प्रेमाश्रम', पृ. 142.
2. वही, पृ. 382.
3. वाजपेयी, नन्ददुलारे, नया साहित्य : नये
प्रश्न,
पृ. 194.
4. वाजपेयी, नन्ददुलारे, नया साहित्य : नये प्रश्न, पृ. 198.
5. नगेन्द्र, विचार और अनुभूति, पृ. 139.
6. देखिए,
Indian
Political Thought, Page 414 : Sharma ‘Reason is poor thing
in midst of temptation, Faith that transcends reason is our only Rock of Age.’
7. नगेन्द्र, विचार और अनुभूति, पृ. 141.
8. गुप्त, सियाराम
शरण,
बापू, पृ. 106.
9. माचवे, प्रभाकर, सन्तुलन, पृ. 173.
10. गुप्त, सियाराम
शरण,
बापू, पृष्ठ 5.
11. डॉ. नगेन्द्र : आधुनिक हिन्दी कविता
की मुख्य प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ 40-44.
डॉ.अर्चना
पाठ्या
वर्धा,
महाराष्ट्रA