Wednesday 2 July 2014

संस्कृत नाटकों में न्याय-व्यवस्था


वीरेन्द्र कुमार

संस्कृत-नाटकों की न्याय व्यवस्था पर प्राचीन स्मृति-ग्रन्थों, धर्माशास्त्र, अर्थशास्त्र के नियमों का स्पष्ट प्रमाण देखा जाता है। धर्मशास्त्रों में प्रजा की रक्षा एवं पालन राजा का प्रथम कर्तव्य माना गया है। धर्म को सर्वोपरी स्थान प्राप्त था। धर्म को आधार मानकर ही राजा न्याय करता था। राजा स्वयं न्यायिक प्रक्रिया का मुखिया था। किन्तु धर्म उससे भी ऊपर था।1 न्याय कर्म को पवित्र कर्म माना जाता था। न्यायालय नगर के बाहरी भाग में बनाए जाते थे।2 न्यायालय की दीवार पर देवी-देवताओं के चित्र3 लगाकर सचित्र वातावरण बनाया जाता था। राजा (न्यायाधीश) ऊचे आसन पर बैठते थे। शेष अधिकारी नीचे आसन पर बैठते थे। राजा उत्तर की ओर मुख करते हुए बैठता था।4 शूद्रक के अनुसार न्यायायल में बैठने वाले सदस्यों में मुख्य न्यायाधिकारी (प्रकिरणिक) श्रेष्ठी एवं कायस्थ थे। साथ ही दूत, गुप्तचर एवं मंत्री भी बैठा करते थे।5 राजा न्यायालय के नियम व व्यवस्था बनाए रखता था।6 न्यायालय में उपस्थित सभासद या न्यायिक प्रक्रिया में सम्मिलित सभा अदि असत्यभाषण करते थे तो दण्ड के भागीदार होते थे।7 प्रायश्चित करने का प्रावधान व्यक्ति के मन को पवित्र बनाता था। प्रजा से लेकर राजा तक के लिए प्रत्येक-अपकृत्य हेतु प्रायश्चित का प्रावधान था8 समाज की वर्ण-व्यवस्था बहुत मजबूत थी। उसके अनुसार अपराधी समाज से बहिष्कृत होने के भय से अपराधों से दूर रहने का प्रयत्न करता था।9
संस्कृत नाटकां की न्यायिक-प्रक्रिया का सम्पूर्ण चित्र व प्रक्रिया का वर्णन शूद्रक के नाटक मृच्छाकटिक के नवें अंक में मिलता है, जिससे तत्कालीन न्याय-व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है एवं महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। न्याय के सम्बन्ध में राजा की शक्तियां अनियन्त्रित थी। राज्य की सर्वोच्च सत्ता का अधिकारी वही था। विधान अथवा कानून बना सकता था। न्याय के कार्य में भी राजा ही सर्वोच्च अधिकारी था। न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा सेवा-मुक्ति वह कर सकता था। मृच्छकटिक में शकार ने इसी कारण से अधिकरणिक को राजा पलक से कहकर कार्य-मुक्त करवाने की धमकी दी थी।10 न्यायाधीश का कार्य केवल अपराध निर्णय करना था, शेष अर्थात् निर्णय की क्रियान्ययन अथवा उसकी अन्तिम स्वीकृति राजा के अधिकार क्षेत्र में आती थी। अधिकारणिक ने इसी कारण चारुदत के अभियोग में निर्णय सुना देने के पश्चात् कहा- निर्णय वयं प्रमाणम्, शेषे तु राजा। इस अनियन्त्रित शक्ति का राजा दुरुपयोग करते थे, यह भी माना जा सकता है। तत्कालीन न्याय पद्धति या न्यायिक-प्रक्रिया की सम्पूर्ण झलक मृच्छकटिक के नवम अंक में चारुदत पर लगे अभियोग के विषय में मिल जाती है।
मृच्छकटिक के नवम अंक में शकार अधिकरण मंडप में जाता है। वहां वह न्यायाधीश को सूचना देता है कि उद्यान में किसी ने वसन्तसेना को मार डाला है। वसन्तसेना की मां से जानकारी लेने पर पता चलता है कि वह चारुदत के घर गई थी। तुरन्त चारुदत को बुलाया जाता है, चारुदत वसन्तसेना के साथ अपनी मित्रता होना स्वीकार करता है। वसन्तसेना चारुदत की गाड़ी में बैठकर उद्यान गई थी, इसकी जानकारी देता है। न्यायाधीश वीरक को उद्यान में भेजते हैं तथा स्त्री का शव पड़ा है, इसकी पुष्टि करवाते हैं। वीरक उद्यान से लौटकर मृत स्त्री के शव की पुष्टि करता है। इसी बीच विदूषक वसन्तसेना के आभूषण लेकर आता है। अधिकारणिक के पूछे जाने पर चारुदत आभूषण वसन्तसेना के हैं तथा उसके घर से ला जाने की पुष्टि करता है। किन्तु कैसे यहां पहुंचे उसके बारे में कुछ कह नहीं सकता। अधिकरणिक अभियोग को सत्य मानकर अपने निर्णय में चारुदत को प्राणदण्ड का आदेश देते हैं। अपना निर्णय अन्तिम फैसले हेतु राजा के पास भेज देते हैं। राजा प्राणदण्ड की आज्ञा देकर फैसले पर अपनी स्वीकृति देते हैं। न्यायालय की इस समस्त प्रक्रिया को व्यवहार तथा कानूनी तथ्यों का ‘व्यवहारपद’ कहा गया है तथा आरोप को अभियोग कहा गया है।
जैसा कि पूर्व की पंक्तियों में कहा जा चुका है कि न्याय-कार्य को ‘व्यवहार’ तथा कानूनी तथ्यों को ‘व्यवहार पद’ कहा जाता था। वादी-प्रतिवादी को क्रमशः कार्यार्थी अथवा व्यवहारार्थी कहा जाता था। अभियोग लिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था। शकार और वीरक के उदाहरणों से जान पड़ता है कि वाद को लेकर कोई भी वादी सीधा न्यायालय जा सकता था तथा तुरन्त कार्रवाई की जाती थी। तत्काल ही वादी-प्रतिवादियों को बुलाने की व्यवस्था एवं परम्परा थी। वादी-प्रतिवादी के बयान लिए जाते थे। गवाहों से गवाहियां ली जाती थी। वादी-प्रतिवादी तथा गवाहों से न्यायाधीश द्वारा प्रश्न पूछे जाते थे तथा जिरह की जाती थी। कपट तथा छल का त्याग कर सत्य भाषण पर बल दिया जाता था।11 सत्य की खोज की दृष्टि से न्यायालय का कार्य व्यवहार दो भागों में बंटा था। प्रथम वाक्य के आधर पर किया गया कार्य व्यवहार। यह वादी एवं प्रतिवादी के बयानों से क्या तथ्य निकलता है यह उलटवांस करके किया जाता था। दूसरे प्रकार का कार्य व्यवहार अर्थ के अनुसार किए जाना वाला था जो प्राप्त तथ्यों के परीक्षण से न्यायाधीश स्वयं सत्य के विषय में जिस परिणाम पर पहुंचता है।12 जिसे न्यायाधीश अपनी शुद्ध बुद्धि अर्थात् बुद्धिमता के आधर पर कार्रवाई करके करता था। शकार से न्यायाधीश के द्वारा यह पूछने पर कि ‘कैसे जान पड़ा, उसे आभूषणों के लिए मार डाला गया है?’ शकार उत्तर देता है कि ‘वह आभूषण विहीन हालत में पड़ी है।’ शकार के अभियोग का समर्थन वसन्तसेना की मॉ एवं वीरक करते हैं। उद्यान में वसन्तसेना लेटी पड़ी है (मरी पड़ी है) उसकी पुष्टि की जाती है। प्रतिवादी अपने बचाव में समुचित उत्तर नहीं दे पाता एवं साक्ष्य नहीं दे पाता। चारुदत्त बताता है कि वसन्तसेना उससे मिलने आई थी किन्तु चली गई। किन्तु कब एवं कैसे गई यह नहीं बता पाता। अतः उसे अभियुक्त मान लिया जाता है। मृत्युदण्ड जैसे जटिल फैसले में न्यायाधीश का निर्णय अन्तिम फैसले हेतु राजा के पास भेज दिया जाता था। राजा को अधिकरणिक का फैसला रद्द करने का पूर्ण अधिकार था। मृच्छकटिक में राजा न्यायाधीश द्वारा चारुदत के लिए निर्धारित किए गए राष्ट्रनिष्कासन दण्ड को भंग कर उसे प्राणदण्ड की आज्ञा देता है। राजा स्वयं भी धर्मासन पर बैठकर धर्म-सभा के सदस्यों के साथ पूरे कार्यों का अवेक्षण करता था एवं निर्णय देता था।
न्यायाधीश एवं न्यायालय- मृच्छकटिक के नवम अंक में स्पष्ट हो जाता है कि नागरिकों की समस्याओं और विवादों को सुनने के लिए प्रशासन के लिए एवं दुर्विनीतों को लिए दण्ड सुनाने के लिए न्यायालय (अधिकरण-मंडप) होते थे। न्यायालय में न्यायाधीश (अधिकरणिक) राजा के द्वारा नियुक्त किए जाते थे। राजा को उन्हें हटाने का भी अधिकार था। न्यायाधीश अच्छे सदाचारी व्यक्ति को बनाया जाता था। धर्मसभा के सभ्यगण भी उत्तम आचार-विचार वाले गणमान्य व्यक्ति ही नियुक्त किए जाते थे। चूंकि राजा की दृष्टि तो प्रत्येक वाद के निर्णय पर पड़ती ही थी, अतः अपील की प्रथा नहीं थी।
सेनापति एवं बलपति दण्ड सहायकों में दूसरा स्थान रखते थे। ये दोनों पुलिस अधिकारी थे। अपराधियों एवं दुष्टों को खोज निकालने हेतु नियुक्त किए जाते थे। सेनापति नगर रक्षाधिकारी होता था। सेनापति एवं बलपति दोनों राजा के विश्वस्त कर्मचारी होते थे। मृच्छकटिक में वीरक एवं चन्दन ऐसे ही कर्मचारी हैं। संक्षेप में न्याय-व्यवस्था को निम्नलिखितानुसार समझा सकते हैं-   सजा

अधिकरणिक




  धर्मसभा     श्रेष्ठिन्          कायस्थ   शोधनक      सेनापति      बलपति
 (समिति) (सहायक न्यायाधीश) (व्यवहार लेखक) (सहायक कर्मचारी) (दंड सहायक) (दंड सहायक)
अभिज्ञानशाकुन्तल में भी रक्षक को उल्लेख मिलता है। ये रक्षक चोर, डाकू आदि अपराधियों को राजा के समक्ष उपस्थित करते थे। अपराध की लघुता एवं गुरुता के अनुकूल न्याय किया जाता था एवं दण्ड निर्धरित किया जाता था। अभिज्ञानशाकुन्तल में धीवर को रक्षक राजा की अंगूठी चुराने के अपराध में राजा के समक्ष ले जाते हैं।
व्यवहार विधि- न्यायिक-प्रक्रिया द्वारा सत्य प्राप्ति की अनेक सीमाएं हैं। यह लिखित प्रमाणों में शास्त्रादि पर निर्भर करता है। फलतः यहां तत्काल सत्य की प्राप्ति संभव नहीं होती है। उसमें न्यायाधीश द्वारा अभियोग के आवेदन लिखित रूप में लेने से लेकर वादी-प्रतिवादी की सुनवाई दोनों पक्षों के गवाहों की सुनवाई, निष्पक्ष गवाहों की सुनवाई एवं स्थान पर मिले साक्ष्यों तक के अंश सम्मिलित हैं जिनके आधार पर अन्तिम निर्णय लेने की प्रक्रिया तक समस्त कार्रवाई को व्यवहार कहते थे। मिताक्षरा में कहा गया है कि एक ही विषय में दोनों पक्षों का निर्णय व तदर्थ प्रयुक्त प्रक्रिया को ही व्यवहार कहते हैं।13 व्यवहार शब्द में वि $ अब $ हार, ये तीन पद हैं। उसमें वि = विभिन्नता, अव $ संशय, हार = निराकरण के वाचक हैं। अर्थात् विभिन्नता के सन्देह को दूर करना।14 इस प्रकार विविध प्रकार के विवाद व संशय का निराकरण करना व्यवहार पद का व्युत्पत्ति लब्ध अर्थ है।15 विवाद की विभिन्नतादि विषयक सूची को मिलाकर स्मृतिकारों ने भी व्यवहार पद की परिभाषा को इस प्रकार व्याख्यायित किया है कि इसमें विवाद-स्थल, वादी-प्रतिवादी, निर्णायक, निर्णय, न्याय-प्रमाण आदि विषयों का समावेश किया गया है। व्यवहरन्ति अनेन इति व्यवहारः के अनुसार व्यवहार का तात्पर्य है लोक मर्यादा का स्थापन। णिंदानादि के 18 विवादों में विरुद्ध- अर्थी व प्रत्यर्थी (वादी-प्रतिवादी) के वाक्य से जनित सन्देह जनक विचार को व्यवहार कहते हैं। हारीत ने स्मृति चन्द्रिका में व्यवहार को परिभाषित करते हुए कहा है- स्वधनस्य यथा प्राप्तिः परधनस्य वर्जनम्। न्यायेन यत्रा क्रियते व्यवहारः स उच्चते।।16
उपरि निर्दिष्ट 18 प्रकार के व्यवहार भी साध्य भेद से अनेक हो जाते हैं-
एषामेव प्रभेदोऽन्यः शतमष्टोत्तर भवेत्। क्रिया भेदान्मनुष्याणां शतशाखे निगद्यते।।17
कौटिल्य ने व्यवहार के विषय को व्यवहार पद से कहा है।18 व्यवहार पद का अर्थ है- विवाद का विषय। विरुद्ध वाद ही विवाद है। व्यवहार की दो विधियां हैं - लिखित तथा साक्षी। इनमें उत्तरोत्तर विशेष है। अतएव व्यवहार दो रूपों में उपस्थित होता था लिखित व मौखिक रूप में, जो उत्तर सहित व उत्तर रहित होता था। विवाद में उत्तर सहित विशेष होता है। इस प्रकार विवाद को न्यायालय में उपस्थित करना आवश्यक है। मनु ने पद का स्थान अर्थ दिया है। याज्ञवल्क्य के अनुसार स्मृति, आचार और परम्परादि के प्रतिकूल यदि किसी की क्षति की जाती है तो वह राजा से निवेदन करे तब यह विषय व्यवहार पद से कहा जाता है।
कालिदास के नाटकों से ज्ञात होता है कि न्यायालय के अतिरिक्त राजा भी धर्मसभा (प्रतिकृत व्यक्तियों की उपस्थिति में) में बैठकर लोगों की समस्याओं का हल करते थे। उस समय न्यायतन्त्र में राजा ही सर्वेसर्वा था। कालिदास के अनुसार राजा की ये कोर्ट (धर्मसभा) बाहरी हिस्से में रहती थी। जहां लोग आसानी से पहुंच सकें।
अपराध पुष्टि एवं प्रमाण विषय- अपराध पुष्टि हेतु अभियोग में लिखाई या दिखाई गई घटना के तथ्य, साल, महीना, दिन, जाति, घटना के आस-पास की परिस्थिति, घटना स्थल से मिले साक्ष्य, गवाहों के बयान, व्यक्ति का अपना चरित्र आदि सभी को ध्यान में रखकर की जाती थी। चारुदत के ऊपर जब मृत्यु का अभियोग लगाया जाता है तो न्यायाधीश चारुदत की सज्जनता का ख्याल करते हैं किन्तु उपलब्ध साक्ष्य चारुदत को अभियुक्त साबित करते हैं तथा न्यायाधीश को अपना अन्तिम निर्णय लेना पड़ता है। तत्कालीन समय में आज की भांति वैज्ञानिक पद्धतियों द्वारा अन्वेषण संभव नहीं थे।
पुनः कालान्तर में प्रतिनिधि सिद्धान्त द्वारा वही स्वरूप प्रस्तावित हुआ जो इस समय वकीलों द्वारा प्रस्तुत होता हैं। रुपयों के प्रलोभनवश विवाद संबंधी विपरीत व्याख्याएं भी प्रस्तुत होने लगीं। मिलिन्दप्रश्न में इस प्रकार के नियुक्त धम्मपणिक अर्थात् धर्म रक्षक शब्द द्वारा व्यवहृत किए गए हैं। मिलिन्दप्रश्न में धर्म सेही शब्द से जो भाव प्रकाशित होता है वैसा ही भाव मृच्छकटिक में भी श्रेष्ठिन् अभिव्यक्त है। इस प्रकार शुक्र के काल तक प्रतिनिधियों का सर्वांगीण विकास सम्पन्न हो चुका था जिसकी समता वर्तमान काल के वकीलों से की जा सकती है।19
न्यायिक प्रक्रिया में दो मूलभूत सिद्धान्त कार्यान्वित होते हैं- अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करना तथा किसी को पीड़ा न पहुॅचाना। इनका उल्लंघन करने पर विवाद आरम्भ होता है। इसलिए बृहस्पति ने विवाद दो प्रकार का स्वीकार किया है - (1) अर्थ विषयक (2) क्षति विषयक। सरस्वती विलास में दण्ड व्यवस्था के स्थान पर ऐसी ही व्याख्या की है।20 याज्ञवल्क्य ने भी अर्थ विवाद की व्याख्या करते समय अर्थ व हिंसा का भेद प्रस्तुत किया है। अर्थ विवाद 14 प्रकार का तथा हिंसा विवाद 4 प्रकार का है। ये विवाद 18 प्रकार से विभाजित होते हैं।21 परन्तु प्रक्रिया में किसी प्रकार का मौलिक भेद नहीं है।
आवेदन अथवा प्रतिज्ञा भाषा- व्यवहार का प्रथमपाद आवेदन अथवा प्रतिज्ञा से प्रारम्भ होता है। वही व्यवहार का मूल है। याज्ञवल्क्य के अनुसार विपक्षी के द्वारा पीड़ित कोई यदि धर्मशास्त्रप्रतिकूल आवेदन राजा को करता है तब वह व्यवहार पद का विषय होता है।22 बृहस्पति व्यवहार के चार मुख्य पद बताते हैं पूर्वपक्षः स्मृतः पादो द्वितीयश्चोत्तरस्तथा। क्रियापादस्तथा चान्यच्चतुर्थे निर्णयः स्मृतः।।23
हिंसामूल विवाद को छोड़कर अन्य सभी विवादों में पूर्वपक्ष व उत्तर पक्ष को अवश्य होना चाहिए। हिंसामूलक स्थान पर राजा लोभवश विवाद प्रस्तुत न करे। वादी की प्रतिज्ञा में यदि कैसी भी अशुद्धि हो वहीं पर उसका पक्ष समाप्त माना जाता है।24
प्रतिज्ञा, भाषा, पक्ष, पूर्वपक्ष, वाद आदि शब्दों से भी आवेदन शब्द परिज्ञात होता है।25 यहां समय, वार, महीना, पक्ष और तिथि लिखनी चाहिए। समय, प्रदेश, विषय, स्थान, जाति, आकृति, आयु, साध्य द्रव्य, प्रमाण, संख्या तथा अपना नाम इनका उल्लेख करना चाहिए। साध्य, निवास एवं पिता का नामोल्लेख भी करना चाहिए।26 बृहस्पति ने संक्षिप्त आवेदन पत्र को अधिक आदृत किया है। प्रार्थना पत्र इस प्रकार लिखना चाहिए कि वहां स्वपक्षीय पक्ष के साथ-साथ प्रतिपक्षीय प्रतिरोध कारणों का भी उल्लेख हो-
प्रतिज्ञादोषनिर्मुक्तं साध्यं सत्कारणान्वितम्। निश्चितं लोकसिद्ध च पक्षं पक्षविदौ विदुः।
अल्पाक्षरः प्रभूतार्थों निः सन्दिग्ध्स्त्वनाकुलम्। मुक्तो विरोध करणेर्विरोधिप्रतिषेद्याः।।
यदात्वेवं विधः पक्षः कल्पितः पूर्ववादिना। दद्यात्पक्षान्तसम्बंधं पूर्ववादी तदोत्तरम्।।27
पक्ष किसी वादी द्वारा उपस्थित किया जाना चाहिए न कि राजा द्वारा। यदि दोनों पक्ष स्वयं निर्णय और सन्धि के इच्छुक हों तो राजा बलपूर्वक विवाद उपस्थित न करे। इस प्रकार न्यायव्यवस्था शासन का कैसा भी हस्तक्षेप अमान्य था। शासन द्वारा व्यवहार का आरम्भ किन्हीं अपवाद भूत परिस्थितियों में होता था। राज्यविद्रोह विषयक विवाद की तरह कौटिल्य के अनुसार देव, ब्राह्मण तपस्वी, स्त्री, बाल, वृद्ध, रुग्ण, अनाथ के विवाद जो स्वयं विवाद प्रस्तुत करने में अशक्त थे उनके विवाद राज्य स्वयं प्रस्तुत करने में समर्थ था।28 बृहस्पति29 एवं मनु30 वृद्धो, स्त्रियों, बालकों तथा रोगियों आदि के लिए प्रतिनिधि भेजने को मान्यता प्रदान करते हैं।
क्रम, विभाग और समय- एक ही दिन में प्रस्तुत अनेक आवेदकों के क्रम निर्धारण के दो आधार थे। प्रथम आधारानुसार विवाद का आधार लक्ष्य और परिणाम आश्रित करके प्राथमिकता व गौणता निर्धारित की जाती थी। द्वितीय आधार के अनुसार अक्षर क्रय को आधार बनाकर विभिन्न आवेदनों का क्रम व्यवस्थापित किया जाता था। महत्वपूर्ण कार्य विषयक विवादों में शीघ्र विचार किया जाता था। बृहस्पति के मतानुसार गाय, बैल, खेत, स्त्रीप्रजनन, न्यास, दत्त, क्रय, विक्रय, कन्यादूषण, चोरी, कलह इत्यादि विषयों में तत्काल विचार किया जाता था।
वाद का प्रवेश- प्रतिज्ञा अथवा आवेदन पत्र के उपस्थित करने के पश्चात् विवाद का कार्यकलाप प्रारम्भ होता था। आवेदन पत्र के साथ समागत प्रार्थी से न्यायाधीश पूछता था कि तुम्हारा क्या कार्य है, तुम्हें क्या कष्ट है? हे मनुष्य! डरो मत। कब, कितने, किससे, किस विषय में तुम्हें कष्ट से व्याकुल किया?31 इसके अनन्तर कात्यायन मतानुसार वादी आवेदन पत्र के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत करता था। प्रतिज्ञा के समस्य नियमों से युक्त आवेदन पत्र न्यायालय में स्वीकार किया जाता था।
न्यायालय में आवेदन पत्र का अध्ययन करके अपेक्षित स्पष्टीकरण हेतु वादी के प्रति प्रष्टव्य प्रश्न उभयपक्ष के सामने पूछे जाते थे। वादी द्वारा प्रदत्त उत्तर भी प्रतिवादी के समक्ष ही लिखे जाते थे। प्रतिवादी को भी उसी समय अपेक्षित समयान्तर पर स्पष्टीकरण का अवसर मिलता था। विचार प्रारम्भ से पूर्व वादी के आवेदनानुसार राजमुद्रा से अंकित आह्वान पत्र द्वारा पूर्वसूचना के आधर पर प्रतिवादी न्यायालय में बुलाया जाता था।32
प्रतिवादी का आह्वान- वादी द्वारा अपना पक्ष प्रस्तुत करने पर प्रतिवादी को बुलाया जाता था। वादी जिसके प्रति विरोध प्रदर्शित करने हेतु आवेदन पत्र प्रस्तुत करता था वही प्रतिवादी माना जाता था। न्यायालय में उसके उपस्थित होने के लिए व्यवस्था की जाती थी। कुछ स्थितियों में प्रतिवादी स्वयं उपस्थित होने में असमर्थ होता था। जैसे बीमारी, सत्तर वर्ष से अधिक व्यस्क, दैवविपत्ति से ग्रस्त, धार्मिक विधियों में संलग्न न्यायालय में उपस्थित होने से जिसे अपूरणीय क्षति सम्भव हो, जिसका कोई संबंधी मर गया हो, अथवा इसी तरह की दूसरी कोई अभाग्यपूर्ण स्थिति से ग्रस्त होने पर राजकार्य अथवा यज्ञादि में व्यस्त होने पर वादी के कुल की अपेक्षा उच्चकुल की स्त्री नवविवाहिता स्त्री, नवप्रसूता इत्यादि स्थितियों में प्रतिवादी स्वयं न्यायालय में उपस्थिति देने में समर्थ नहीं होता था। पशुओं के चारण अथवा अन्नोत्पादनकाल में इस कर्म में संलग्न कोई पशुपालन कृषक, अथवा कला में संलग्न कोई कलाकार या युद्ध में सुरक्षा की दृष्टि से प्रवृत्त कोई व्यक्ति प्रतिवादी के रूप में स्वयं अनुपस्थित रहते हुए अपने प्रतिनिधि को भेज सकते थे। वे प्रतिनिधि भी प्रतिवादी के समान ही माने जाते थे।
पहले एक कारण रखकर फिर दूसरा गुरुत्तर कारण यदि बोलता है तो बाद वाला कारण वहां प्रमाणस्वरूप अनुसरणीय है न कि पूर्वोक्त। बृहस्पति तथा कात्यायन के अनुसार- पूर्वपक्षे यथार्थ तु न दद्यादुत्तरं तु यः। प्रत्यर्थी दापनीयः स्यात्सामादिभिरुपक्रमैः।।
प्रियपूर्व वचः साम भेदो वस्तूपदर्शनम् अर्थाश्योद्यमानस्तु न दद्यादुत्तरं तु यः।
अतिक्रान्ते सप्रात्रो जितोऽसौ दण्डमहीते।।33
उभयोर्लिखिते वाक्ये प्रारब्धे कार्यनिश्चये। अनुक्तं तत्र यो ब्रूयात्तदर्यात्स तु हीयते।
मोहाद्वा यदि वा शाठ्याद्यन्नोक्तं पूर्ववादिना। उत्तरान्तर्गतं चापि तद्ग्राह्ममुभयोरपि।।34
स्मृतिकाल की उपर्युक्त न्यायिक-प्रक्रिया पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि न्यायिक-प्रक्रिया का एक व्यवस्थित विधि-विधान था।35 समुचित न्याय-व्यवस्था के अंतर्गत न्याय सर्वजन सुलभ था।36
न्यायिक चेतना एवं न्याय सुलभता- तत्कालीन समय में न्याय को धर्म एवं अन्याय को अधर्म कहा जाता था। राजा को भी अन्याय करने की छूट नहीं थी। अन्यायी राजा को राज्य च्युत कर दिया जाता था। जैसा कि मृच्छकटिक में अन्यायी राजा का तख्ता पलटा गया। चारुदत को जब सजा सुनाई जाती है। मृत्युदण्ड का आदेश दिया जाता है तो प्रजा इसका मन ही मन विरोध करती है और उसे बचाने हेतु शकट चालक समय पर पहुंचकर सच्चाई का बयान करता है। झूठ बोलने वाले, झूठी गवाही देने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था। राजा यदि सही अपराध्ी को सजा नहीं देता तथा निर्दोष को सजा देता है तो वह सर्वनाश का पात्र बनता था। उसका राज्य नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार की मान्यता थी कि यदि राजा भूल से भी गलत निर्णय करता है तो उसके लिए प्रायश्चित का प्रावधान था। हर संभव सच्चाई तक पहुंचने का प्रयास किया जाता था। मत्स्यन्याय को रोकना राजा का कर्तव्य था। कालिदास के अनुसार राजा प्रजा का पिता है। प्रजा का सर्वांगिण विकास करना उसका कर्त्तव्य है। इसके लिए राजा दण्डपात्र को दण्ड दे। कालिदास ने आगे लिखा है कि राजा कानून तोड़ने वालों के साथ सख्ती करके समाज में व्यवस्था बनाए रखे। न्याय एवं अन्याय की स्पष्ट विभाजक रेखा हमें संस्कृत नाटकों में मिलती है। राजा के साथ-साथ प्रजा भी न्यायप्रिय थी। अन्याय के लिए सजग थी। मृच्छकटिक में राजा पालक के अत्याचार के विरुद्ध प्रजा आवाज उठाती है एवं राज्य क्रान्ति में साथ देती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. धर्मशास्त्रो का इतिहास, प्प्प्, पृ. 241
2. विक्रमो, ट
3. वृहस्पति. प् 19
4. वही
5. मृच्छ., 9
6. वृहस्पति., 27.18
7. कात्या., 670
8. वृहस्पति
9. मनुस्मृति
10. वही
11. किं न दृश्यते मम व्यवहारः? यदि न दृश्यते तदा आवुत्तं राजानं पालकं भगिनीपतिं विज्ञाप्य भगिनीं मातरं च2विज्ञाप्य एतमधिकरणिकं दूरीकृत्य अब अन्यमधिकरणिकं स्थापयिष्यामि।- मृच्छ., नवम अंक, पृ. 461
12. व्यवहारः ....... त्यज लज्जां हृदिस्थिताम्। वू्रहि सत्यमलं धैÕर्यं छलमत्र न गृह्यते।। - मृच्छ., 9.18
13. वाक्यानुसारेण अर्थानुसारेण च। यस्तावत् वाक्यानुसारेण, स खल्वर्थिप्रत्यार्थिभ्यः, यश्चार्थानुसारेण, स चाध्किरणिकयुद्ध्निप्पाद्यः। - मृच्छ. नवम अंक, पृ. 467-68
14. मिताक्षरा, याज्ञ, स्मृति, 2.1
15. वि नानार्थेऽव सन्देहे हरणं हार उच्यते। नाना सन्देहहरणाद् व्यवहार इति स्मृतः।।- व्यवहारमातृका, पृ. 283
16. गीतमर्ध्मसूत्रा, 10.48, 11.9
17. स्मृतिचन्द्रिका, 2 पृ. 1
18. नारद., 1.20
19. कौटिल्य, 3.16, 14,7
20. मिलिन्दप्रश्न 5, पृ. 344, संपा. ट्रेंकर
21. तथा च गौतमसूत्रम्। द्विरुत्थानतो द्विगतिरिति। व्यवहार इत्यनुषज्यते तत्रा निबन्धकारेणोक्तम् - णिंदानादि विभागान्तानां देयनिबन्धनत्वं साहसादिप×चकस्यदण्डनिबन्ध्नत्वमिति द्विरुत्थानतेत्यर्थ इति।- स्मृतिचन्द्रिका, 2, पृ. 9
22. याज्ञ., 2/51
23. बृह., 1/71
24. देशकालविहीनश्च द्रव्यसंख्याविवर्जितः। साध्यप्रमाणहीनश्च पक्षोऽनादेय इप्यते।- कात्या., 138
25. याज्ञ., 2/6ऋ कात्या. 131ऋ नारद. 2/1
26 कात्या., 124-128
27 कात्या., 141-143ऋ बृह. 14-15, 3.1
28 कौटिल्य- अर्थशास्त्र, 3/74-75
29. बृहस्पतिस्मृति, 1/142-43
30. मुनस्मृति, 8.27-30
31. याज्ञ., 2.5 मिताक्षरा से उद्धृत कात्यायन के वचन
32. व्य, मा., पृ. 148
33. बृह., 2/78, 2/4, 1/173
34. कात्या., 206, 193
35. आश्चर्यम्। एप स राजश्यालसंस्थानक आगतः। एकेन भिक्षुणा अपराधकृते, अन्यमपि यस्मिन् यस्मिन् भिक्षुं प्रेक्षते, तसिमन् तस्मिन् गामिव नासिका विद्ध्वा अपवाहयति। तत् कास्मिन् अशरणः शरणं गमिष्यामि। अथवा भट्टारक एवं बुद्धो में शरणम्। - मृच्छ., अष्टम अंक, पृ. 375
36. चिन्तासक्त-निमग्न-मन्त्रि-सलिलं दूतोभिर्मशंखाकुलम् पर्यन्त-स्थित-चार-नक्र-मकरं नागाश्च हिंस्राश्रयम्।
नाना-वाशक-कंक-पक्षिरुचिरं कायस्थ-सर्पास्पदं नीति-क्षूण्ण-तट×च राज-करणं हिंस्रः समुद्रायते।।- मृच्छ., 9.14
वीरेन्द्र कुमार 
पी-एच.डी., संस्कृत विभाग, 
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7.