सुरेन्द्र कुमार तोसावड़ा
भारतीय दर्शन की यह अवधरणा है कि एक अद्वितीय सनातन ब्रह्म ही ‘सत्य’ है, वही द्वैत अर्थात् ‘सृष्टि का कर्त्ता’ है- सदैव सोम्येदमग्रासीदेकमसाद्वितीयकम्..........तदैक्षत् बहु स्यां प्रजायेयेति तेत्तेजोऽसृजतः।1 वही नियन्ता है, उसी में सृष्टि अर्थात् द्वैत का लय हो जाता है। भारतीय दर्शन में ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार है-
श्रुति में द्वैत (सृष्टि)- वेदों में सृष्टि (द्वैत) की उत्पत्ति के विषय में अनेक सूक्त एवं मन्त्र हैं। जिस प्रकार षड्दर्शनों में आन्तरिक और बाह्य जगत् का विश्लेषण करने के लिए से अनेक तर्क दिये गये हैं, उसी प्रकार तर्क और विस्तृत युक्तियाँ वेदों में नहीं मिलती हैं। वैदिक ऋचाओं में सहज स्वभाव से ‘सृष्टि रचना’ का वर्णन प्राप्त होता है। यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ? इसकी रचना प्रक्रिया कैसी विलक्षण थी? इन सब प्रश्नों पर ऋग्वेद के ‘नासदीय सूक्त’ में स्पष्ट प्रकाश डाला गया है। ‘नासदासीन्नो’ से आरंभ होने के कारण इसे ‘नासदीय’ कहा जाता है। ऋग्वेद की प्रथम 3 ऋचाओं में सृष्टि तथा प्रलयकाल की अवस्था का वर्णन है।2 इन ऋचाओं में कहा गया है कि ‘सर्गकाल’ से पूर्व, प्रलयावस्था में सब कुछ ‘असत्’ था, सत् नहीं था। ये दृश्यमान लोक-लोकान्तर और जो उनसे व्यवहार्य आकाश है, वह भी नहीं था। कहीं कोई आवरण करने वाला भी नहीं था। आगे कहा गया है कि उस समय कैसी सत्ता थी, उस समय मृत्यु नहीं थी, अमृत नहीं था, रात्रि और दिन का चिह्न कोई न था, केवल स्वधा के साथ एक चेतन सत्ता अवस्थित थी, उससे उत्कृष्ट और कोई नहीं था।3 चेतन सर्वव्यापक परमात्मा ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा उसकी उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयदि अवस्थाओं का नियन्ता है।4 अचेतन प्रकृति इस जगत् का मूल उपादान कारण है। यह उस ‘चेतन’ के द्वारा नियंत्रित होती है। अचेतन तत्व की दो अवस्थाएं हैं- सर्ग और प्रलय। इन दोनों के आरम्भ को यथाक्रम दृश्यमान व्यक्त जगत् का उत्पाद और विनाश कहा जाता है।5 नासदीय सूक्त में दो मूल तत्त्वों को स्वीकार किया गया है चेतन और अचेतन। अचेतन को यहां क्रमशः स्वधा अथवा तमस् पद से निर्देश किया गया है तथा इसे अव्यक्त बताया गया है, यही जगत् का मूल उपादान है। चेतन को इसका अध्यक्ष बताया है। यजुर्वेद के पुरुष सूक्त में मूल प्रकृति से विराट् की उत्पत्ति बतायी गयी है। भूतों की उत्पत्ति और उसके अनन्तर वनादि की उत्पत्ति हुई, उसके बाद पशु आदि उत्पन्न हुए।6
श्रुति में जगत् सृष्टि के विषय में आगे कहा गया है कि इस सम्पूर्ण जगत् को प्रकृति का अधिष्ठान परमेश्वर महाभूतादि तत्त्वों के समुदाय से रचते हैं तथा दूसरा (जीवात्मा) उस प्रपंच से माया के द्वारा भली भांति बंधा हुआ है।7 जो अपनी स्वरूपभूत विविध शासन शक्तियों द्वारा इन सब लोकों पर शासन करता है। वह परमेश्वर (रूद्र) ही है।8 यह जगत् प्रकट होने से पहले एकमात्र परमात्मा ही था, उसके सिवा दूसरा कोई भी चेष्टा करने वाला नहीं था। उस परमपुरुष परमात्मा ने ही लोकों की रचना करने का संकल्प लिया।9 उसी परमात्मा ने अम्भ, मरीचि, मर और जल इन लोकों की रचना की।10 ब्रह्म को सृष्टि का निमित्त कारण माना गया है, उस ब्रह्म की प्रेरणा से उसकी स्वाभाविक ईक्षण शक्ति से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधियाँ रूप जगत् निर्मित हो जाता है।11 आरम्भ में एकमात्र अद्वितीय सत् ही था। उसी समय दूसरा मत भी प्रचलित था कि एकमात्र अद्वितीय असत् से सत् की उत्पत्ति हुई है।12 वह ईक्षण द्वारा नाना रूप हो गया13, ईश्वर (ब्रह्म) अपने संकल्प के द्वारा द्वैत (सृष्टि) को रचता है। उस तप के परिणामस्वरूप अन्न, प्राण, मन, पंचमहाभूत, समस्त लोक और कर्म तथा कर्मों के अवश्यंभासी सुख-दुःख रूप फल उत्पन्न होते हैं।14 प्राण, मन, इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल आदि से लेकर समस्त विश्व को धारण करने वाली पृथिवी पर्यन्त सभी उसी (परमेश्वर) से उत्पन्न हुए हैं।15 जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से उसी के समान रूपवाली हजारों चिन्गारियाँ नाना प्रकार से प्रकट होती है उसी प्रकार अविनाशी ब्रह्म से नाना प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं।16 श्रुति में कार्य के द्वारा कारण को समझाने का प्रयत्न किया गया है। इन्द्रियों से मन सूक्ष्म है, मन से सूक्ष्म बुद्धि है, बुद्धि से ऊपर ‘महत् तत्त्व’ है और महत् तत्त्व से अव्यक्त प्रकृति अति सूक्ष्म है।16 उस अव्यक्त प्रकृति से भी सूक्ष्म वह परमपुरुष ईश्वर (परमेश्वर) है।17 जैसे पक्षीगण वास के लिए वृक्ष पर ठहरते हैं, उसी प्रकार प्रलय काल में सभी स्थूल और जड़ वस्तुएँ क्रमशः अपने कारण को प्राप्त होतीं हुई परमेश्वर में लीन हो जाती हैं।18 सृष्टि से पूर्व अव्याकृत् सद्रूप ब्रह्म की स्थिति मानी गई है, फिर परब्रह्म से माया की उपाधि से युक्त सृष्टि हुई।19
श्रीमद्भगदवद् गीता में द्वैत (सृष्टि)- गीता में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय का कारण ईश्वर को माना गया है। वे सृष्टि के सनातन अविनाशी बीज हैं।20 जिस प्रकार बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है तथा अन्त में फिर बीज में ही लीन हो जाता है, उसी प्रकार यह जगत् ईश्वर (भगवान्) से उत्पन्न होता है तथा फिर उन्हीं में लीन हो जाता है। जगत् के आवान्तर आविर्भाव काल को ‘ब्रह्मा का दिन’ कहते हैं तथा आवान्तर तिरोभाव काल को ‘ब्रह्म की रात्रि’ कहते हैं।22
चार्वाक दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- चार्वाक मतानुसार चार भूतों पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि इन भौतिक तत्त्वों के संयोग से जगत् की सृष्टि हुई है। निर्माण का अर्थ भूतों का संयुक्त होना तथा इसके विपरीत प्रलय का अर्थ भूतों का बिखर जाना है। चार्वाकानुसार भूतों का संयोजन आकस्मिक है। भूतों में जगत् निर्माण की शक्ति स्वाभाविक है। जिस प्रकार आग का स्वभाव गर्म होना तथा जल का स्वभाव शीतलता प्रदान करना है उसी प्रकार भूतों का स्वभाव जगत् का निर्माण करना है। वस्तु का स्वभाव ही जगत् की विचित्रता का कारण है।23
जैन दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- जैन दर्शन के अनुसार यह लोक (विश्व या सृष्टि) जीव तथा पुद्गल आदि 6 द्रव्यों से निर्मित है। ये छः द्रव्य न तो कभी किसी से उत्पन्न हुए हैं और न कभी किसी अन्य द्रव्य में विलीन होंगे। अनादि-अनन्त द्रव्यों से निर्मित यह लोक भी आदि अन्त रहित, अकर्तृक तथा स्वसंचालित है। इसका स्रष्टा, पालक अथवा संहारक भी कोई नहीं है।24 जैन दर्शन के अनुसार इस विश्व की संरचनाओं में जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये 6 द्रव्य पाये जाते हैं। ये द्रव्य सत् अर्थात वास्तविक हैं। इस लोक में उपर्युक्त छः द्रव्य यद्यपि एक दूसरे में अनुप्रविष्ट हैं तथापि तात्त्विक दृष्टि से वे सर्वथा पृथक्-पृथक् हैं। न तो वे कभी किसी एक तत्त्व से उत्पन्न ही हुए हैं और न कभी किसी एक तत्त्व में विलीन होंगे। वे अनादि काल से आपस में मिले हुए होने पर भी अब तक आपस में नहीं मिल पाये हैं और न कभी भविष्य में ही उनके अन्योन्य संप्लव की आशा की जा सकती है।25 वे अनादि अनन्त, अकृत्रिम एवं शाश्वत है। उनसे निर्मित यह लोक भी अनादि, अनन्त, अकर्तृक एवं शाश्वत है।
बौद्ध दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- महात्मा बुद्ध ने जगत् या सृष्टि के संबंध में मध्यम मार्ग का अवलम्बन किया है। सृष्टि के आदि-अन्त के प्रश्नों को उन्होंने अव्याकृत प्रश्नों26 की कोटि में रखा है। साथ ही उसके शाश्वत या अशाश्वत होने के प्रश्न भी इसी कोटि में रखे गये हैं; किन्तु सृष्टि या लोक के संबंध के उन्होंने कहा है कि यह सारा जगत् ‘पंचस्कन्धों’ का प्रवाह मात्र है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान ये पंच स्कन्ध हैं। स्कन्ध का अर्थ है-‘राशि या समूह’। ये पंचस्कन्ध निरन्तर परिवर्तनशील स्वभाव के होने के कारण प्रतिक्षण उदय-व्यय को प्राप्त होते रहते हैं। लोक में जितने भी आध्यात्मिक एवं बाह्य पदार्थ हैं- वे सब पंचस्कन्धों से निर्मित हैं। बुद्ध के अनुसार विश्व का प्रत्येक सत्व इसी स्कन्ध पंचक से निर्मित है और जीव अविद्या के कारण भवचक्र में पड़ा हुआ है। बौद्धों के अनुसार इस जगत् का संचालन प्राणियों के कर्म के द्वारा होता है।27
न्याय-वैशेषिक दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- न्याय-वैशेषिक दर्शन अन्य भारतीय दर्शनों की तरह जगत् की उत्पत्ति के संबंध में ‘सृष्टिवाद’ के सिद्धान्त को स्वीकार करता है। न्याय वैशेषिक के अनुसार संसार का निर्माण परमाणुओं से हुआ है। यह परमाणु 4 प्रकार के हैं-
(1) पृथ्वी के परमाणु (2) जल के परमाणु (3) वायु के परमाणु (4) अग्नि के परमाणु
परमाणु शाश्वत होते हैं, इनकी न सृष्टि होती है और न नाश होता है। ‘निर्माण’ का अर्थ विभिन्न अवयवों का संयुक्त हो जाना और ‘विनाश’ का अर्थ है विभिन्न अवयवों का बिखर जाना। परमाणु निरवयव हैं, इसीलिए निर्माण और विनाश से परे हैं। दिक्, काल, आत्मा, मन और भौतिक परमाणुओं की न सृष्टि होती है न विनाश। अतः न्याय-वैशेषिक का सृष्टि संबंधी और प्रलय संबंधी सिद्धांत अनित्य द्रव्यों की सृष्टि और प्रलय का सिद्धांत है। अणु परिमाण, विशिष्ट परमाणुओं के संयोग से ‘द्वयणुक’ की उत्पत्ति होती है। जो अणु परमाणु विशिष्ट होने से स्वयं अतीन्द्रिय होते हैं। ऐसे तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक (त्रसरेणु) की उत्पत्ति होती है। दो परमाणुओं से द्वयणुक की उत्पत्ति होती है। द्वयणुक भी अणु परिमाण वाला है; किन्तु कार्य होने से वह अनित्य है। तीन द्वयणुकों से जिस त्रसरेणु की उत्पत्ति होती है वह महत्परिमाण वाला होता है। अतः उसका चाक्षुक् प्रत्यक्ष होता है। चार त्रसरेणुओं के योग से चतुरणुक की उत्पत्ति होती है और तदनन्तर जगत् की सृष्टि होती है। प्रत्येक द्रव्य की सृष्टि में इसी क्रम का अनुसरण माना जाता है। न्याय-वैशेषिक मत में परमाणु स्वभावतः शान्त अवस्था में निःस्पन्दरूप से निवास करते हैं। वैशेषिक दार्शनिक प्राणियों के धर्माधर्मरूप अदृष्ट को प्रथम परिस्पन्द का कारण बतलाते हैं। अदृष्ट की दार्शनिक कल्पना बड़ी विलक्षण है। अयस्कान्त मणि की ओर हुई स्वाभाविक गति28, वृक्षों के भीतर रस का नीचे से ऊपर चढ़ना29, अग्नि की लपटों का ऊपर उठना, वायु की तिरछी गति, मन तथा परमाणुओं की पहली गति (स्पन्दनात्मक क्रिया) अदृष्ट के द्वारा जन्य बताई जाती है; परन्तु पूर्ववर्ती आचार्यों ने अदृष्ट की सहकारिता से ईश्वर की इच्छापूर्वक परमाणुओं में स्पन्दन तथा तज्जन्य सृष्टि क्रिया स्वीकार किया है।30
सांख्य-योग में द्वैत (सृष्टि)- सांख्य दर्शन में किसी सृष्टिकर्त्ता ईश्वर को नहीं माना गया। पुरुष की सन्निधि मात्र से किसी तरह प्रकृति की साम्यावस्था का भंग और उसके परिणाम द्वारा तत्वों की सृष्टि होती है। इस प्रकार पुरुष और प्रकृति का सम्बन्ध लंगड़े और अन्धे के सम्बन्ध के समान है; निष्क्रिय होने से पुरुष लंगड़ा या गतिहीन है, उसी प्रकार प्रकृति अचेतन या अन्धी है। दोनों के मिल जाने से सृष्टि क्रम होता है। प्रकृति का उद्देश्य है- पुरुष द्वारा देखा जाना। पुरुष का उद्देश्य है- कैवल्य। परस्पर दोनों एक दूसरे के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।31 सर्वप्रथम ‘प्रकृति’ से महत्त उत्पन्न होता है। इस महत् से अहंकार की उत्पत्ति होती है जो वैकृत (सात्विक), तैजस (राजस) तथा भूतादि (तामस) के भेद से विविधस्वरूपों वाला होता है। अहंकार के वैकृत-तैजस् (सात्विक-राजस) अंश से एकादश इन्द्रियां तथा भूतादितैजस (तामस-राजस) अंश से पंच तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है। इस प्रकार अहंकार से ये (11$5=16) सोलह तत्व उत्पन्न होते हैं। इन सोलह तत्वों के समूह में विद्यमान पंचतन्मात्राओं से पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है।32
मीमांसा दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- मीमांसा दर्शन में बाह्य पदार्थों की प्राप्ति इन्द्रियों के द्वारा होती है। अतः जिस रूप में जगत् की उपलब्धि होती है उसी रूप में सत्यता को स्वीकार किया गया है।33 मीमांसा दर्शन जगत् और उसके सम्पूर्ण विषयों को सत्य समझता है। बौद्धों के शून्यवाद तथा क्षणिकवाद को और अद्वैतियों के मायावाद को मीमांसक स्वीकार नहीं करते हैं। प्रत्यक्ष होने वाले विषयों के अतिरिक्त यह दर्शन ‘स्वर्ग’, ‘नरक’, ‘आत्मा’ तथा ‘वैदिक यज्ञ’ के देवताओं के अस्तित्व को भी प्रमाणों के आधार पर स्वीकार करता है। कर्म के नियम के अनुसार सृष्टि की रचना होती है। मूल जगत् की सृष्टि तथा प्रलय नहीं हुआ करते, केवल व्यक्ति उत्पन्न होते रहते हैं तथा विनाश को प्राप्त होते रहते हैं। जगत् की नवीन सृष्टि तथा नाश कभी नहीं होता। कुछ मीमांसक34 वैशेषिकों की तरह परमाणुवाद को भी मानते हैं, फिर भी दोनों में भेद यह है कि मीमांसकों के मत में परमाणु ईश्वर के द्वारा संचालित नहीं होते; अपितु कर्म के स्वाभाविक नियम के अनुसार ही वे इस तरह प्रवर्तित होते हैं जिससे जीवात्माओं को कर्म-फल का भोग कराने योग्य संसार बन जाता है। न्याय-वैशेषिक के मत में परमाणु प्रत्यक्ष न होकर अनुमेय माने गये हैं; किन्तु मीमांसकों के मत में नेत्रगोचर होने वाले कण ही परमाणु हैं, इनसे भी सूक्ष्मतर कणों की कल्पना के लिए कोई प्रमाण नहीं है। न्याय-वैशेषिक उन्हें योगियों के प्रत्यक्ष का विषय मानता है; किन्तु मीमांसा दर्शन योगज प्रत्यक्ष को साधारण प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं मानता। मीमांसा दर्शन की दृष्टि में जगत् का यही स्वरूप है। तत्त्वविचार की दृष्टि से मीमांसा दर्शन वस्तुवादी दर्शन है। इस दर्शन में प्रत्यक्ष से बढ़कर वेद वाक्य का महत्व है।
शाङ्कर वेदान्त में द्वैत (सृष्टि)- आचार्य शङ्कर के अनुसार विश्व ईश्वर की सृष्टि है, सृष्टि के विपरीत क्रिया को प्रलय कहा जाता है। माया ईश्वर की शक्ति है इससे वह जगत की सृष्टि करता है। प्रलय काल में जगत् ईश्वर में विलीन हो जाता है। सृष्टि और प्रलय का चक्र निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। इस प्रकार ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालनकर्ता एवं संहर्ता है।35 वह जीवों के भोग के लिए भिन्न-भिन्न लौकिक वस्तुओं का निर्माण करता है। शङ्कर ने सृष्टि को परमार्थतः सत्य नहीं माना है। सृष्टि व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है, पारमार्थिक दृष्टि से नहीं। अब यहां प्रश्न हो सकता है कि क्या ईश्वर ही जगत् का कारण है, यह भ्रामक है क्योंकि कारण और कार्य में अन्तर है। क्या सोना मिट्टी का कारण हो सकता है? चेतन ईश्वर अचेतन जगत् का कारण नहीं हो सकता। शङ्कर इस समस्या का समाधान करते हुए कहते हैं जिस प्रकार चेतन जीव से नाखून, केश आदि अचेतन वस्तुओं का निर्माण होता है उसी प्रकार ईश्वर से जगत् का निर्माण होता है।36 साधारणतः सृष्टिवाद के विरूद्ध कहा जाता है कि ईश्वर को जीवों का स्रष्टा मानने से ईश्वर के गुणों का खण्डन हो जाता है। हम साक्षात् देखते हैं कि भिन्न-भिन्न जीवों के भाग्य में अन्तर है। कोई सुखी है तो कोई दुःखी है। यदि ईश्वर को विश्व का कारण माना जाये तो वह अन्यायी एवं निर्दयी हो जाता है। शङ्कर इस समस्या का समाधान कर्म सिद्धांत के द्वारा करते हुए कहते हैं कि ईश्वर जीवों का निर्माण मनमाने ढंग से नहीं करता, बल्कि वह जीवों को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुकूल रचता है।’ जीवों के सुख-दुःख का निर्णय उनके पुण्य एवं पाप के अनुरूप ही होता है। इसीलिए शङ्कर ने ईश्वर की तुलना वर्षा से की है जो पेड़-पौधों की वृद्धि में सहायक होता है; परन्तु उनके स्वरूप को परिवर्तित करने में असमर्थ होता है।37 यदि यह माना जाये कि ईश्वर ने किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर जगत् की सृष्टि की है, तो ईश्वर की पूर्णता खण्डित हो सकती है। शङ्कराचार्य का उत्तर है कि सृष्टि ईश्वर का खेल है। सृष्टि करना ईश्वर का स्वभाव है।38 शङ्कर के मतानुसार ईश्वर से विभिन्न वस्तुओं की उत्पत्ति इस प्रकार होती है-
सर्वप्रथम ईश्वर से पाँच सूक्ष्मभूतों का अविर्भाव होता है। आकाश माया से उत्पन्न होता है।39 आकाश से वायु40, वायु से अग्नि41, अग्नि से जल42 तथा जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। इस प्रकार आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से सूक्ष्म भूतों का निर्माण होता है।
सन्दर्भ-
1. छा. उप. 6/2/1-3
2.नासदासीन्नो!सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा पंरो यत्। किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्मः किमासीद्गहनं गंभीरम्।। -ऋ. 10/129/1
3.न मृत्युरासीदमृतं न तार्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। आनीदवातं स्वधयातदेकं यस्माद्धन्यन्न परः किं चनास।- वही 10/129/2
4.तम असीत्तमसा गूढमग्रेप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। तुच्छयनाम्वपिहितं यदासीत्तपस्तन्महिम्नाजायतैकम।। - वही 10/129/3
5.वैदिक दर्शन - जयदेव विद्यालंकार, पृ. 175
6.यजु. 31/5,6,7,8,9,12,13,14,15,16,17,19,22
7.छंदासि यज्ञाः क्रत वो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदावदन्ति। अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत् तस्मिÜंचान्यो मायया संनिरुद्ध।। -श्वेत.उप. 4/9
8.एको हि रूदो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः। प्रत्यडजनांस्तिष्ठति संचुकोचान्तकाले ससंसृज्ये विश्वा भुवनानि।। वही 3/2
9.आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। -ऐ.उप. 1/1/1
10.स इमा ल्लोकान सृजत। अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः।। वही 1/1/2
11.(क) सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। -तैति. 2/1/1
(ख) तस्माद्वा एतस्मादात्मान आकाश संभूत। - वही
(ग) अन्नात्पुरुष। -वही
(घ) सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत यदिदं किंच। - वही 2/6
12.सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमाद्वितीयम्। तद्धैक आहुरसदेवदमग्र अीसदेकमेवाद्वितीयम् तस्मादसतः सज्यायत।। -छा.उप. 6/2/1
13.तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत। तत्तेज ऐक्षत बहुस्या। - वही 6/2/3
14.तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते। अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसुचामृतम्।। -मु.उप. 1/1/8
15.एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च। खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।। वही 2/1/3
16.तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद विस्पुफलिङ्गासहसस्रश प्रभवन्ते सरूपाः।
तक्षाक्षराद विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति।। -वही 2/1/1
17.इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्वमुत्तमम्। सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।। -कठ.उप. 2/3/7
18.अव्याक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिड एव च। यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृत्वं न गच्छति।। वही 2/3/8
19.स यथा सोम्य वयांसि वासोवृक्षं सम्प्रतिष्ठन्ते एवं ह वै तत् सर्व पर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते। - प्रश्न. उप 4/7
20.तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्तन्नामरूपभ्यामेव व्याक्रियतासौनामायमिद ँ्रूप इति तदिदमप्येतर्हि
नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतासौनामायमिद ँ् रूप इति। स एष इह प्रविष्ट ।। -बृहद. उप. 1/4/7
21.(क) बीजं मां सर्व भूतानांवद्धि पार्थ सनातनम्। -गीता 7/10
(ख) बीजमव्ययम्। - वही 9/18
22.अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवावयक्तसंज्ञके।। - वही, 8/18
23.अपरे लोकायतिकाः स्वभावं जगतः कारणमाहुः।
स्वभावादेह जगद् विचित्रमुत्पद्यते, स्वभावतो विलयं याति।। -भट्टोत्पल-बृहत्संहिता की टीका 1.7
24.सर्वाकाशमनन्तं तस्य च बहुमध्यसंस्थितः लोकः। स केनापि नैव कृतः न च धृतः हरि हरादिभिः।
(मूलग्रन्थ की अप्राप्ति के कारण अप्रत्यक्ष संकेत), भारतीय सृष्टि विद्या, पृ. 6
25.अण्णोण्णपवेसेण य द्रव्वाणं अच्छणं हवे लोओ। -वही, पृ. 7
26.अव्याकृत प्रश्न - (क) क्या यह लोक शाश्वत है? (ख) क्या यह लोक अशाश्वत है? (ग) क्या यह लोक सान्त है? (घ) क्या यह लोक अनन्त है? (ड) क्या आत्मा तथा शरीर एक है? (च) क्या आत्मा शरीर से भिन्न है? (छ) क्या मृत्यु के बाद तथागत का पुनर्जन्म होता है? (ज) क्या मृत्यु के बाद तथागत का पुनर्जन्म नहीं होता? (झ) क्या तथागत का पुनर्जन्म होता भी है, नहीं भी होता? (´) क्या तथागता का पुनर्जन्म होना और न होना दोनों ही बातें असत्य हैं? - वही, पृ. 54
27.कर्मजं लोकवैचित्र्यं। -अभि. को. पृ. 192/7
28मणिगमन्सूच्यभिसर्पणमित्यदृष्टकारण। -वै.सू. 5/1/15
29.वृक्षाभिसर्पणमित्यदृष्टकारितम्। -वही 5/2/7
30.प्रश. पा. भा., पृ. 20
31.पुरुषस्य दर्शनार्थ केवल्यार्थ तथा प्रधानस्य। पडग्वन्धवदुभयोरपि संयोस्तत्कृतः सर्ग।। -सा.का., 21
32.प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहकरस्तस्माद गणÜच पोडषकः। तस्मादपि षोडषकात् पंचभ्य पंचभूतानि। - वही, 22
33.तस्माद् यद् गृह्यते वस्तुयेन रूपेण सर्वदा। तत्ततैवाभ्युपेतव्यं सामान्यमथवेतरत्।। -श्लो. वा., पृ.सं.04
34.प्रभाकर विजय, पृ. 43-46
35.जन्माद्यस्य यत्ः। ब्र.सू. 1/1/2
36.(क) दृश्यते तु। -वही 2/1/6
(ख) महद्दीर्धवद्वा हस्वपरिमण्डलाभ्याम्। -वही 2/2/11
37.वैषम्यनैर्द्यृण्ये न सापेक्षत्वात्तथा हि दर्शयति। -वही, 2/1/34
38.लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्। - वही, 2/2/33
39.तस्माद् ब्रह्मकार्य वियदिति सिद्धम। -ब्र.सू.शा.भा. 2/3/7
40.एतेन मातरिश्वा व्याख्यात्। -ब्र.सू. 2/3/8
41.तेजोऽतस्था हृह। - वही, 2/3/10
42.आपः। -वही 2/3/11
भारतीय दर्शन की यह अवधरणा है कि एक अद्वितीय सनातन ब्रह्म ही ‘सत्य’ है, वही द्वैत अर्थात् ‘सृष्टि का कर्त्ता’ है- सदैव सोम्येदमग्रासीदेकमसाद्वितीयकम्..........तदैक्षत् बहु स्यां प्रजायेयेति तेत्तेजोऽसृजतः।1 वही नियन्ता है, उसी में सृष्टि अर्थात् द्वैत का लय हो जाता है। भारतीय दर्शन में ईश्वर द्वारा निर्मित द्वैत अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार है-
श्रुति में द्वैत (सृष्टि)- वेदों में सृष्टि (द्वैत) की उत्पत्ति के विषय में अनेक सूक्त एवं मन्त्र हैं। जिस प्रकार षड्दर्शनों में आन्तरिक और बाह्य जगत् का विश्लेषण करने के लिए से अनेक तर्क दिये गये हैं, उसी प्रकार तर्क और विस्तृत युक्तियाँ वेदों में नहीं मिलती हैं। वैदिक ऋचाओं में सहज स्वभाव से ‘सृष्टि रचना’ का वर्णन प्राप्त होता है। यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ? इसकी रचना प्रक्रिया कैसी विलक्षण थी? इन सब प्रश्नों पर ऋग्वेद के ‘नासदीय सूक्त’ में स्पष्ट प्रकाश डाला गया है। ‘नासदासीन्नो’ से आरंभ होने के कारण इसे ‘नासदीय’ कहा जाता है। ऋग्वेद की प्रथम 3 ऋचाओं में सृष्टि तथा प्रलयकाल की अवस्था का वर्णन है।2 इन ऋचाओं में कहा गया है कि ‘सर्गकाल’ से पूर्व, प्रलयावस्था में सब कुछ ‘असत्’ था, सत् नहीं था। ये दृश्यमान लोक-लोकान्तर और जो उनसे व्यवहार्य आकाश है, वह भी नहीं था। कहीं कोई आवरण करने वाला भी नहीं था। आगे कहा गया है कि उस समय कैसी सत्ता थी, उस समय मृत्यु नहीं थी, अमृत नहीं था, रात्रि और दिन का चिह्न कोई न था, केवल स्वधा के साथ एक चेतन सत्ता अवस्थित थी, उससे उत्कृष्ट और कोई नहीं था।3 चेतन सर्वव्यापक परमात्मा ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा उसकी उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयदि अवस्थाओं का नियन्ता है।4 अचेतन प्रकृति इस जगत् का मूल उपादान कारण है। यह उस ‘चेतन’ के द्वारा नियंत्रित होती है। अचेतन तत्व की दो अवस्थाएं हैं- सर्ग और प्रलय। इन दोनों के आरम्भ को यथाक्रम दृश्यमान व्यक्त जगत् का उत्पाद और विनाश कहा जाता है।5 नासदीय सूक्त में दो मूल तत्त्वों को स्वीकार किया गया है चेतन और अचेतन। अचेतन को यहां क्रमशः स्वधा अथवा तमस् पद से निर्देश किया गया है तथा इसे अव्यक्त बताया गया है, यही जगत् का मूल उपादान है। चेतन को इसका अध्यक्ष बताया है। यजुर्वेद के पुरुष सूक्त में मूल प्रकृति से विराट् की उत्पत्ति बतायी गयी है। भूतों की उत्पत्ति और उसके अनन्तर वनादि की उत्पत्ति हुई, उसके बाद पशु आदि उत्पन्न हुए।6
श्रुति में जगत् सृष्टि के विषय में आगे कहा गया है कि इस सम्पूर्ण जगत् को प्रकृति का अधिष्ठान परमेश्वर महाभूतादि तत्त्वों के समुदाय से रचते हैं तथा दूसरा (जीवात्मा) उस प्रपंच से माया के द्वारा भली भांति बंधा हुआ है।7 जो अपनी स्वरूपभूत विविध शासन शक्तियों द्वारा इन सब लोकों पर शासन करता है। वह परमेश्वर (रूद्र) ही है।8 यह जगत् प्रकट होने से पहले एकमात्र परमात्मा ही था, उसके सिवा दूसरा कोई भी चेष्टा करने वाला नहीं था। उस परमपुरुष परमात्मा ने ही लोकों की रचना करने का संकल्प लिया।9 उसी परमात्मा ने अम्भ, मरीचि, मर और जल इन लोकों की रचना की।10 ब्रह्म को सृष्टि का निमित्त कारण माना गया है, उस ब्रह्म की प्रेरणा से उसकी स्वाभाविक ईक्षण शक्ति से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधियाँ रूप जगत् निर्मित हो जाता है।11 आरम्भ में एकमात्र अद्वितीय सत् ही था। उसी समय दूसरा मत भी प्रचलित था कि एकमात्र अद्वितीय असत् से सत् की उत्पत्ति हुई है।12 वह ईक्षण द्वारा नाना रूप हो गया13, ईश्वर (ब्रह्म) अपने संकल्प के द्वारा द्वैत (सृष्टि) को रचता है। उस तप के परिणामस्वरूप अन्न, प्राण, मन, पंचमहाभूत, समस्त लोक और कर्म तथा कर्मों के अवश्यंभासी सुख-दुःख रूप फल उत्पन्न होते हैं।14 प्राण, मन, इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, अग्नि, जल आदि से लेकर समस्त विश्व को धारण करने वाली पृथिवी पर्यन्त सभी उसी (परमेश्वर) से उत्पन्न हुए हैं।15 जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से उसी के समान रूपवाली हजारों चिन्गारियाँ नाना प्रकार से प्रकट होती है उसी प्रकार अविनाशी ब्रह्म से नाना प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं।16 श्रुति में कार्य के द्वारा कारण को समझाने का प्रयत्न किया गया है। इन्द्रियों से मन सूक्ष्म है, मन से सूक्ष्म बुद्धि है, बुद्धि से ऊपर ‘महत् तत्त्व’ है और महत् तत्त्व से अव्यक्त प्रकृति अति सूक्ष्म है।16 उस अव्यक्त प्रकृति से भी सूक्ष्म वह परमपुरुष ईश्वर (परमेश्वर) है।17 जैसे पक्षीगण वास के लिए वृक्ष पर ठहरते हैं, उसी प्रकार प्रलय काल में सभी स्थूल और जड़ वस्तुएँ क्रमशः अपने कारण को प्राप्त होतीं हुई परमेश्वर में लीन हो जाती हैं।18 सृष्टि से पूर्व अव्याकृत् सद्रूप ब्रह्म की स्थिति मानी गई है, फिर परब्रह्म से माया की उपाधि से युक्त सृष्टि हुई।19
श्रीमद्भगदवद् गीता में द्वैत (सृष्टि)- गीता में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय का कारण ईश्वर को माना गया है। वे सृष्टि के सनातन अविनाशी बीज हैं।20 जिस प्रकार बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है तथा अन्त में फिर बीज में ही लीन हो जाता है, उसी प्रकार यह जगत् ईश्वर (भगवान्) से उत्पन्न होता है तथा फिर उन्हीं में लीन हो जाता है। जगत् के आवान्तर आविर्भाव काल को ‘ब्रह्मा का दिन’ कहते हैं तथा आवान्तर तिरोभाव काल को ‘ब्रह्म की रात्रि’ कहते हैं।22
चार्वाक दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- चार्वाक मतानुसार चार भूतों पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि इन भौतिक तत्त्वों के संयोग से जगत् की सृष्टि हुई है। निर्माण का अर्थ भूतों का संयुक्त होना तथा इसके विपरीत प्रलय का अर्थ भूतों का बिखर जाना है। चार्वाकानुसार भूतों का संयोजन आकस्मिक है। भूतों में जगत् निर्माण की शक्ति स्वाभाविक है। जिस प्रकार आग का स्वभाव गर्म होना तथा जल का स्वभाव शीतलता प्रदान करना है उसी प्रकार भूतों का स्वभाव जगत् का निर्माण करना है। वस्तु का स्वभाव ही जगत् की विचित्रता का कारण है।23
जैन दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- जैन दर्शन के अनुसार यह लोक (विश्व या सृष्टि) जीव तथा पुद्गल आदि 6 द्रव्यों से निर्मित है। ये छः द्रव्य न तो कभी किसी से उत्पन्न हुए हैं और न कभी किसी अन्य द्रव्य में विलीन होंगे। अनादि-अनन्त द्रव्यों से निर्मित यह लोक भी आदि अन्त रहित, अकर्तृक तथा स्वसंचालित है। इसका स्रष्टा, पालक अथवा संहारक भी कोई नहीं है।24 जैन दर्शन के अनुसार इस विश्व की संरचनाओं में जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये 6 द्रव्य पाये जाते हैं। ये द्रव्य सत् अर्थात वास्तविक हैं। इस लोक में उपर्युक्त छः द्रव्य यद्यपि एक दूसरे में अनुप्रविष्ट हैं तथापि तात्त्विक दृष्टि से वे सर्वथा पृथक्-पृथक् हैं। न तो वे कभी किसी एक तत्त्व से उत्पन्न ही हुए हैं और न कभी किसी एक तत्त्व में विलीन होंगे। वे अनादि काल से आपस में मिले हुए होने पर भी अब तक आपस में नहीं मिल पाये हैं और न कभी भविष्य में ही उनके अन्योन्य संप्लव की आशा की जा सकती है।25 वे अनादि अनन्त, अकृत्रिम एवं शाश्वत है। उनसे निर्मित यह लोक भी अनादि, अनन्त, अकर्तृक एवं शाश्वत है।
बौद्ध दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- महात्मा बुद्ध ने जगत् या सृष्टि के संबंध में मध्यम मार्ग का अवलम्बन किया है। सृष्टि के आदि-अन्त के प्रश्नों को उन्होंने अव्याकृत प्रश्नों26 की कोटि में रखा है। साथ ही उसके शाश्वत या अशाश्वत होने के प्रश्न भी इसी कोटि में रखे गये हैं; किन्तु सृष्टि या लोक के संबंध के उन्होंने कहा है कि यह सारा जगत् ‘पंचस्कन्धों’ का प्रवाह मात्र है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान ये पंच स्कन्ध हैं। स्कन्ध का अर्थ है-‘राशि या समूह’। ये पंचस्कन्ध निरन्तर परिवर्तनशील स्वभाव के होने के कारण प्रतिक्षण उदय-व्यय को प्राप्त होते रहते हैं। लोक में जितने भी आध्यात्मिक एवं बाह्य पदार्थ हैं- वे सब पंचस्कन्धों से निर्मित हैं। बुद्ध के अनुसार विश्व का प्रत्येक सत्व इसी स्कन्ध पंचक से निर्मित है और जीव अविद्या के कारण भवचक्र में पड़ा हुआ है। बौद्धों के अनुसार इस जगत् का संचालन प्राणियों के कर्म के द्वारा होता है।27
न्याय-वैशेषिक दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- न्याय-वैशेषिक दर्शन अन्य भारतीय दर्शनों की तरह जगत् की उत्पत्ति के संबंध में ‘सृष्टिवाद’ के सिद्धान्त को स्वीकार करता है। न्याय वैशेषिक के अनुसार संसार का निर्माण परमाणुओं से हुआ है। यह परमाणु 4 प्रकार के हैं-
(1) पृथ्वी के परमाणु (2) जल के परमाणु (3) वायु के परमाणु (4) अग्नि के परमाणु
परमाणु शाश्वत होते हैं, इनकी न सृष्टि होती है और न नाश होता है। ‘निर्माण’ का अर्थ विभिन्न अवयवों का संयुक्त हो जाना और ‘विनाश’ का अर्थ है विभिन्न अवयवों का बिखर जाना। परमाणु निरवयव हैं, इसीलिए निर्माण और विनाश से परे हैं। दिक्, काल, आत्मा, मन और भौतिक परमाणुओं की न सृष्टि होती है न विनाश। अतः न्याय-वैशेषिक का सृष्टि संबंधी और प्रलय संबंधी सिद्धांत अनित्य द्रव्यों की सृष्टि और प्रलय का सिद्धांत है। अणु परिमाण, विशिष्ट परमाणुओं के संयोग से ‘द्वयणुक’ की उत्पत्ति होती है। जो अणु परमाणु विशिष्ट होने से स्वयं अतीन्द्रिय होते हैं। ऐसे तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक (त्रसरेणु) की उत्पत्ति होती है। दो परमाणुओं से द्वयणुक की उत्पत्ति होती है। द्वयणुक भी अणु परिमाण वाला है; किन्तु कार्य होने से वह अनित्य है। तीन द्वयणुकों से जिस त्रसरेणु की उत्पत्ति होती है वह महत्परिमाण वाला होता है। अतः उसका चाक्षुक् प्रत्यक्ष होता है। चार त्रसरेणुओं के योग से चतुरणुक की उत्पत्ति होती है और तदनन्तर जगत् की सृष्टि होती है। प्रत्येक द्रव्य की सृष्टि में इसी क्रम का अनुसरण माना जाता है। न्याय-वैशेषिक मत में परमाणु स्वभावतः शान्त अवस्था में निःस्पन्दरूप से निवास करते हैं। वैशेषिक दार्शनिक प्राणियों के धर्माधर्मरूप अदृष्ट को प्रथम परिस्पन्द का कारण बतलाते हैं। अदृष्ट की दार्शनिक कल्पना बड़ी विलक्षण है। अयस्कान्त मणि की ओर हुई स्वाभाविक गति28, वृक्षों के भीतर रस का नीचे से ऊपर चढ़ना29, अग्नि की लपटों का ऊपर उठना, वायु की तिरछी गति, मन तथा परमाणुओं की पहली गति (स्पन्दनात्मक क्रिया) अदृष्ट के द्वारा जन्य बताई जाती है; परन्तु पूर्ववर्ती आचार्यों ने अदृष्ट की सहकारिता से ईश्वर की इच्छापूर्वक परमाणुओं में स्पन्दन तथा तज्जन्य सृष्टि क्रिया स्वीकार किया है।30
सांख्य-योग में द्वैत (सृष्टि)- सांख्य दर्शन में किसी सृष्टिकर्त्ता ईश्वर को नहीं माना गया। पुरुष की सन्निधि मात्र से किसी तरह प्रकृति की साम्यावस्था का भंग और उसके परिणाम द्वारा तत्वों की सृष्टि होती है। इस प्रकार पुरुष और प्रकृति का सम्बन्ध लंगड़े और अन्धे के सम्बन्ध के समान है; निष्क्रिय होने से पुरुष लंगड़ा या गतिहीन है, उसी प्रकार प्रकृति अचेतन या अन्धी है। दोनों के मिल जाने से सृष्टि क्रम होता है। प्रकृति का उद्देश्य है- पुरुष द्वारा देखा जाना। पुरुष का उद्देश्य है- कैवल्य। परस्पर दोनों एक दूसरे के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।31 सर्वप्रथम ‘प्रकृति’ से महत्त उत्पन्न होता है। इस महत् से अहंकार की उत्पत्ति होती है जो वैकृत (सात्विक), तैजस (राजस) तथा भूतादि (तामस) के भेद से विविधस्वरूपों वाला होता है। अहंकार के वैकृत-तैजस् (सात्विक-राजस) अंश से एकादश इन्द्रियां तथा भूतादितैजस (तामस-राजस) अंश से पंच तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है। इस प्रकार अहंकार से ये (11$5=16) सोलह तत्व उत्पन्न होते हैं। इन सोलह तत्वों के समूह में विद्यमान पंचतन्मात्राओं से पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है।32
मीमांसा दर्शन में द्वैत (सृष्टि)- मीमांसा दर्शन में बाह्य पदार्थों की प्राप्ति इन्द्रियों के द्वारा होती है। अतः जिस रूप में जगत् की उपलब्धि होती है उसी रूप में सत्यता को स्वीकार किया गया है।33 मीमांसा दर्शन जगत् और उसके सम्पूर्ण विषयों को सत्य समझता है। बौद्धों के शून्यवाद तथा क्षणिकवाद को और अद्वैतियों के मायावाद को मीमांसक स्वीकार नहीं करते हैं। प्रत्यक्ष होने वाले विषयों के अतिरिक्त यह दर्शन ‘स्वर्ग’, ‘नरक’, ‘आत्मा’ तथा ‘वैदिक यज्ञ’ के देवताओं के अस्तित्व को भी प्रमाणों के आधार पर स्वीकार करता है। कर्म के नियम के अनुसार सृष्टि की रचना होती है। मूल जगत् की सृष्टि तथा प्रलय नहीं हुआ करते, केवल व्यक्ति उत्पन्न होते रहते हैं तथा विनाश को प्राप्त होते रहते हैं। जगत् की नवीन सृष्टि तथा नाश कभी नहीं होता। कुछ मीमांसक34 वैशेषिकों की तरह परमाणुवाद को भी मानते हैं, फिर भी दोनों में भेद यह है कि मीमांसकों के मत में परमाणु ईश्वर के द्वारा संचालित नहीं होते; अपितु कर्म के स्वाभाविक नियम के अनुसार ही वे इस तरह प्रवर्तित होते हैं जिससे जीवात्माओं को कर्म-फल का भोग कराने योग्य संसार बन जाता है। न्याय-वैशेषिक के मत में परमाणु प्रत्यक्ष न होकर अनुमेय माने गये हैं; किन्तु मीमांसकों के मत में नेत्रगोचर होने वाले कण ही परमाणु हैं, इनसे भी सूक्ष्मतर कणों की कल्पना के लिए कोई प्रमाण नहीं है। न्याय-वैशेषिक उन्हें योगियों के प्रत्यक्ष का विषय मानता है; किन्तु मीमांसा दर्शन योगज प्रत्यक्ष को साधारण प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं मानता। मीमांसा दर्शन की दृष्टि में जगत् का यही स्वरूप है। तत्त्वविचार की दृष्टि से मीमांसा दर्शन वस्तुवादी दर्शन है। इस दर्शन में प्रत्यक्ष से बढ़कर वेद वाक्य का महत्व है।
शाङ्कर वेदान्त में द्वैत (सृष्टि)- आचार्य शङ्कर के अनुसार विश्व ईश्वर की सृष्टि है, सृष्टि के विपरीत क्रिया को प्रलय कहा जाता है। माया ईश्वर की शक्ति है इससे वह जगत की सृष्टि करता है। प्रलय काल में जगत् ईश्वर में विलीन हो जाता है। सृष्टि और प्रलय का चक्र निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। इस प्रकार ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालनकर्ता एवं संहर्ता है।35 वह जीवों के भोग के लिए भिन्न-भिन्न लौकिक वस्तुओं का निर्माण करता है। शङ्कर ने सृष्टि को परमार्थतः सत्य नहीं माना है। सृष्टि व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है, पारमार्थिक दृष्टि से नहीं। अब यहां प्रश्न हो सकता है कि क्या ईश्वर ही जगत् का कारण है, यह भ्रामक है क्योंकि कारण और कार्य में अन्तर है। क्या सोना मिट्टी का कारण हो सकता है? चेतन ईश्वर अचेतन जगत् का कारण नहीं हो सकता। शङ्कर इस समस्या का समाधान करते हुए कहते हैं जिस प्रकार चेतन जीव से नाखून, केश आदि अचेतन वस्तुओं का निर्माण होता है उसी प्रकार ईश्वर से जगत् का निर्माण होता है।36 साधारणतः सृष्टिवाद के विरूद्ध कहा जाता है कि ईश्वर को जीवों का स्रष्टा मानने से ईश्वर के गुणों का खण्डन हो जाता है। हम साक्षात् देखते हैं कि भिन्न-भिन्न जीवों के भाग्य में अन्तर है। कोई सुखी है तो कोई दुःखी है। यदि ईश्वर को विश्व का कारण माना जाये तो वह अन्यायी एवं निर्दयी हो जाता है। शङ्कर इस समस्या का समाधान कर्म सिद्धांत के द्वारा करते हुए कहते हैं कि ईश्वर जीवों का निर्माण मनमाने ढंग से नहीं करता, बल्कि वह जीवों को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुकूल रचता है।’ जीवों के सुख-दुःख का निर्णय उनके पुण्य एवं पाप के अनुरूप ही होता है। इसीलिए शङ्कर ने ईश्वर की तुलना वर्षा से की है जो पेड़-पौधों की वृद्धि में सहायक होता है; परन्तु उनके स्वरूप को परिवर्तित करने में असमर्थ होता है।37 यदि यह माना जाये कि ईश्वर ने किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर जगत् की सृष्टि की है, तो ईश्वर की पूर्णता खण्डित हो सकती है। शङ्कराचार्य का उत्तर है कि सृष्टि ईश्वर का खेल है। सृष्टि करना ईश्वर का स्वभाव है।38 शङ्कर के मतानुसार ईश्वर से विभिन्न वस्तुओं की उत्पत्ति इस प्रकार होती है-
सर्वप्रथम ईश्वर से पाँच सूक्ष्मभूतों का अविर्भाव होता है। आकाश माया से उत्पन्न होता है।39 आकाश से वायु40, वायु से अग्नि41, अग्नि से जल42 तथा जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। इस प्रकार आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से सूक्ष्म भूतों का निर्माण होता है।
सन्दर्भ-
1. छा. उप. 6/2/1-3
2.नासदासीन्नो!सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा पंरो यत्। किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्मः किमासीद्गहनं गंभीरम्।। -ऋ. 10/129/1
3.न मृत्युरासीदमृतं न तार्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। आनीदवातं स्वधयातदेकं यस्माद्धन्यन्न परः किं चनास।- वही 10/129/2
4.तम असीत्तमसा गूढमग्रेप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। तुच्छयनाम्वपिहितं यदासीत्तपस्तन्महिम्नाजायतैकम।। - वही 10/129/3
5.वैदिक दर्शन - जयदेव विद्यालंकार, पृ. 175
6.यजु. 31/5,6,7,8,9,12,13,14,15,16,17,19,22
7.छंदासि यज्ञाः क्रत वो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदावदन्ति। अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत् तस्मिÜंचान्यो मायया संनिरुद्ध।। -श्वेत.उप. 4/9
8.एको हि रूदो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः। प्रत्यडजनांस्तिष्ठति संचुकोचान्तकाले ससंसृज्ये विश्वा भुवनानि।। वही 3/2
9.आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। -ऐ.उप. 1/1/1
10.स इमा ल्लोकान सृजत। अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः।। वही 1/1/2
11.(क) सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। -तैति. 2/1/1
(ख) तस्माद्वा एतस्मादात्मान आकाश संभूत। - वही
(ग) अन्नात्पुरुष। -वही
(घ) सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत यदिदं किंच। - वही 2/6
12.सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमाद्वितीयम्। तद्धैक आहुरसदेवदमग्र अीसदेकमेवाद्वितीयम् तस्मादसतः सज्यायत।। -छा.उप. 6/2/1
13.तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत। तत्तेज ऐक्षत बहुस्या। - वही 6/2/3
14.तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते। अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसुचामृतम्।। -मु.उप. 1/1/8
15.एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च। खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।। वही 2/1/3
16.तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद विस्पुफलिङ्गासहसस्रश प्रभवन्ते सरूपाः।
तक्षाक्षराद विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति।। -वही 2/1/1
17.इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्वमुत्तमम्। सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।। -कठ.उप. 2/3/7
18.अव्याक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिड एव च। यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृत्वं न गच्छति।। वही 2/3/8
19.स यथा सोम्य वयांसि वासोवृक्षं सम्प्रतिष्ठन्ते एवं ह वै तत् सर्व पर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते। - प्रश्न. उप 4/7
20.तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्तन्नामरूपभ्यामेव व्याक्रियतासौनामायमिद ँ्रूप इति तदिदमप्येतर्हि
नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतासौनामायमिद ँ् रूप इति। स एष इह प्रविष्ट ।। -बृहद. उप. 1/4/7
21.(क) बीजं मां सर्व भूतानांवद्धि पार्थ सनातनम्। -गीता 7/10
(ख) बीजमव्ययम्। - वही 9/18
22.अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवावयक्तसंज्ञके।। - वही, 8/18
23.अपरे लोकायतिकाः स्वभावं जगतः कारणमाहुः।
स्वभावादेह जगद् विचित्रमुत्पद्यते, स्वभावतो विलयं याति।। -भट्टोत्पल-बृहत्संहिता की टीका 1.7
24.सर्वाकाशमनन्तं तस्य च बहुमध्यसंस्थितः लोकः। स केनापि नैव कृतः न च धृतः हरि हरादिभिः।
(मूलग्रन्थ की अप्राप्ति के कारण अप्रत्यक्ष संकेत), भारतीय सृष्टि विद्या, पृ. 6
25.अण्णोण्णपवेसेण य द्रव्वाणं अच्छणं हवे लोओ। -वही, पृ. 7
26.अव्याकृत प्रश्न - (क) क्या यह लोक शाश्वत है? (ख) क्या यह लोक अशाश्वत है? (ग) क्या यह लोक सान्त है? (घ) क्या यह लोक अनन्त है? (ड) क्या आत्मा तथा शरीर एक है? (च) क्या आत्मा शरीर से भिन्न है? (छ) क्या मृत्यु के बाद तथागत का पुनर्जन्म होता है? (ज) क्या मृत्यु के बाद तथागत का पुनर्जन्म नहीं होता? (झ) क्या तथागत का पुनर्जन्म होता भी है, नहीं भी होता? (´) क्या तथागता का पुनर्जन्म होना और न होना दोनों ही बातें असत्य हैं? - वही, पृ. 54
27.कर्मजं लोकवैचित्र्यं। -अभि. को. पृ. 192/7
28मणिगमन्सूच्यभिसर्पणमित्यदृष्टकारण। -वै.सू. 5/1/15
29.वृक्षाभिसर्पणमित्यदृष्टकारितम्। -वही 5/2/7
30.प्रश. पा. भा., पृ. 20
31.पुरुषस्य दर्शनार्थ केवल्यार्थ तथा प्रधानस्य। पडग्वन्धवदुभयोरपि संयोस्तत्कृतः सर्ग।। -सा.का., 21
32.प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहकरस्तस्माद गणÜच पोडषकः। तस्मादपि षोडषकात् पंचभ्य पंचभूतानि। - वही, 22
33.तस्माद् यद् गृह्यते वस्तुयेन रूपेण सर्वदा। तत्ततैवाभ्युपेतव्यं सामान्यमथवेतरत्।। -श्लो. वा., पृ.सं.04
34.प्रभाकर विजय, पृ. 43-46
35.जन्माद्यस्य यत्ः। ब्र.सू. 1/1/2
36.(क) दृश्यते तु। -वही 2/1/6
(ख) महद्दीर्धवद्वा हस्वपरिमण्डलाभ्याम्। -वही 2/2/11
37.वैषम्यनैर्द्यृण्ये न सापेक्षत्वात्तथा हि दर्शयति। -वही, 2/1/34
38.लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्। - वही, 2/2/33
39.तस्माद् ब्रह्मकार्य वियदिति सिद्धम। -ब्र.सू.शा.भा. 2/3/7
40.एतेन मातरिश्वा व्याख्यात्। -ब्र.सू. 2/3/8
41.तेजोऽतस्था हृह। - वही, 2/3/10
42.आपः। -वही 2/3/11
सुरेन्द्र कुमार तोसावड़ा
शोधच्छात्र, संस्कृत विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।